प्रेरक कथा: मैं ना होता तो क्या होता ?
हम सोचते है, मैं ना होता तो क्या होता?पर हनुमान जी, प्रभु श्रीराम से कहते है...
प्रभु, यदि मैं लंका न जाता, तो मेरे जीवन में बड़ी कमी रह जाती। विभीषण का घर जब तक मैंने नही देखा था, तब तक मुझे लगता था, कि लंका में भला सन्त कहाँ मिलेंगे...
"लंका निसिचर निकर निवासा, इहाँ कहाँ सज्जन कर बासा"
प्रभु, मैं तो समझता था कि सन्त तो भारत में ही होते हैं। लेकिन जब मैं लंका में सीताजी को ढूंढ नहीं सका और विभीषण से भेंट होने पर उन्होंने उपाय बता दिया, तो मैंने सोचा कि अरे, जिन्हें मैं प्रयत्न करके नहीं ढूँढ सका, उन्हें तो इन लंका वाले सन्त ने ही बता दिया। शायद प्रभु ने यही दिखाने के लिए भेजा था कि इस दृश्य को भी देख लो।
और प्रभु, अशोक वाटिका में जिस समय रावण आया और रावण क्रोध में भरकर तलवार लेकर माँ को मारने के लिए दौड़ा, तब मुझे लगा कि अब मुझे कूदकर इसकी तलवार छीन कर इसका ही सिर काट लेना चाहिए, किन्तु अगले ही क्षण मैंने देखा कि मन्दोदरी ने रावण का हाथ पकड़ लिया। यह देखकर मैं गदगद् हो गया।
ओह प्रभु, आपने कैसी शिक्षा दी! यदि मैं कूद पड़ता, तो मुझे भ्रम हो जाता कि यदि मैं न होता तो क्या होता? बहुधा व्यक्ति को ऐसा ही भ्रम हो जाता है। मुझे भी लगता कि, यदि मैं न होता, तो सीताजी को कौन बचाता? पर आप कितने बड़े कौतुकी हैं? आपने उन्हें बचाया ही नहीं, बल्कि बचाने का काम रावण की उस पत्नी को ही सौंप दिया, जिसको प्रसन्नता होनी चाहिए कि सीता मरे, तो मेरा भय दूर हो। तो मैं समझ गया कि आप जिससे जो कार्य लेना चाहते हैं, वह उसी से लेते हैं। किसी का कोई महत्व नहीं है।
आगे चलकर जब त्रिजटा ने कहा कि लंका में बन्दर आया हुआ है, तो मैं समझ गया कि यहाँ तो बड़े सन्त हैं। मैं आया और यहाँ के सन्त ने देख लिया। पर जब उसने कहा कि वह बन्दर लंका जलायेगा, तो मैं बड़ी चिन्ता में पड़ गया कि प्रभु ने तो लंका जलाने के लिए कहा नहीं और त्रिजटा कह रही है, तो मैं क्या करूँ? पर प्रभु, बाद में तो मुझे सब अनुभव हो गया।
"रावण की सभा में इसलिए बँधकर रह गया कि करके तो मैंने देख लिया, अब जरा बँधके देखूं , कि क्या होता है। जब रावण के सैनिक तलवार लेकर मुझे मारने के लिए चले तो मैंने अपने को बचाने की तनिक भी चेष्टा नहीं की, पर जब विभीषण ने आकर कहा - दूत को मारना अनीति है, तो मैं समझ गया कि देखो, मुझे बचाना है, तो प्रभु ने यह उपाय कर दिया। सीताजी को बचाना है, तो रावण की पत्नी मन्दोदरी को लगा दिया। मुझे बचाना था, तो रावण के भाई को भेज दिया।
प्रभु, आश्चर्य की पराकाष्ठा तो तब हुई, जब रावण ने कहा कि बन्दर को मारा तो नहीं जायेगा, पर पूँछ में कपड़ा-तेल लपेट कर घी डालकर आग लगाई जाय, तो मैं गदगद् हो गया कि उस लंका वाली सन्त त्रिजटा की ही बात सच थी। लंका को जलाने के लिए मैं कहाँ से घी, तेल, कपड़ा लाता, कहाँ आग ढूँढता! वह प्रबन्ध भी आपने रावण से करा लिया। जब आप रावण से भी अपना काम करा लेते हैं, तो मुझसे करा लेने में आश्चर्य की क्या बात है !
इसलिए यह
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आषाढ़ संकष्टी गणेश चतुर्थी व्रत कथा (Ashadha Sankashti Ganesh Chaturthi Vrat Katha)
पार्वती जी ने पूछा कि हे पुत्र ! आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी को गणेश की पूजा कैसे करनी चाहिए? आषाढ़ मास के गणपति देवता का क्या नाम है? उनके पूजन आदि का क्या विधान है, सो आप मुझसे कहिए?गणेश जी ने कहा आषाढ़ कृष्ण चतुर्थी के दिन कृष्णपिङ्गल नामक गणेश की पूजा करनी चाहिए। इसकी कथा निम्न प्रकार से है..
हे महाराज! द्वापर युग में महिष्मति नगरी का महीजित नामक राजा था। वह बड़ा ही पुण्यशील और प्रतापी राजा था। वह अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत करता था। किन्तु संतानविहीन होने के कारण उसे राजमहल का वैभव अच्छा नहीं लगता था। वेदों में निसंतान का जीवन व्यर्थ माना गया हैं। यदि संतान विहीन व्यक्ति अपने पितरों को जल दान देता हैं तो उसके पितृगण उस जल को गरम जल के रूप में ग्रहण करते हैं।
इसी उहापोह में राजा का बहुत समय व्यतीत हो गया। उन्होंने पुत्र प्राप्ति के लिए बहुत से दान, यज्ञ आदि कार्य किये। फिर भी राज को पुत्रोत्पत्ति न हुई। जवानी ढल गई और बुढ़ापा आ गया किन्तु वंश वृद्धि न हुई। तदनन्तर राजा ने विद्वान ब्राह्मणों और प्रजाजनों संदर्भ में परामर्श किया।
राजा ने कहा कि हे ब्राह्मणों तथा प्रजाजनों! हम तो संतानहीन हो गए, अब मेरी क्या गति होगी? मैंने जीवन में तो किंचित भी पाप कर्म नहीं किया। मैंने कभी अत्याचार द्वारा धन संग्रह नहीं किया। मैंने तो सदैव प्रजा का पुत्रवत पालन किया तथा धर्माचरण द्वारा ही पृथ्वी शासन किया। मैंने चोर-डाकुओं को दण्डित किया।
इष्ट मित्रों के भोजन की व्यवस्था की, गौ, ब्राह्मणों का हित चिंतन करते हुए शिष्ट पुरुषों का आदर सत्कार किया। फिर भी मुझे अब तक पुत्र न होने का क्या कारण हैं? विद्वान् ब्राह्मणों ने कहा कि हे महाराज! हम लोग वैसा ही प्रयत्न करेंगे जिससे आपके वंश कि वृद्धि हो। इस प्रकार कहकर सब लोग युक्ति सोचने लगे। सारी प्रजा राजा के मनोरथ की सिद्धि के लिए ब्राह्मणों के साथ वन में चली गई।
वन में उन लोगों को एक श्रेष्ठ मुनि के दर्शन हुए। वे मुनिराज निराहार रहकर तपस्या में लीन थे। ब्रह्माजी के सामान वे आत्मजित, क्रोधजित तथा सनातन पुरुष थे। सम्पूर्ण वेद-विशारद एवं अनेक ब्रह्म ज्ञान संपन्न वे महात्मा थे। उनका निर्मल नाम लोमश ऋषि था। प्रत्येक कल्पांत में उनके एक-एक रोम पतित होते थे। इसलिए उनका नाम लोमश ऋषि पड़ गया। ऐसे त्रिकालदर्शी महर्षि लोमेश के उन लोगों ने दर्शन किये।
सब लोग उन तेजस्वी मुनि के पास गये। उचित अभ्यर्थना एवं प्रणामदि के अनन्तर सभी लोग उनके समक्ष खड़े हो गये। मुनि के दर्शन से सभी लोग प्रसन्न होकर परस्पर कहने लगे कि हम लोगों को सौभाग्य से ही ऐसे मुनि के दर्शन हुए। इनके उपदेश से हम सभी का मंगल होगा, ऐसा निश्चय कर उन लोगों ने मुनिराज से कहा। हे ब्रह्मऋषि! हम लोगों के दुःख का कारण सुनिए। अपने संदेह के निवारण के लिए हम लोग आपके पास आये हैं। हे भगवन! आप कोई उपाय बत
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प्रेरक कथा: श्री कृष्ण मोर से, तेरा पंख सदैव मेरे शीश पर होगा! (Prerak Katha Shri Krishn Mor Se Tera Aankh Sadaiv Mere Shish)
श्री कृष्ण के लीला काल का समय था, गोकुल में एक मोर रहता था, वह मोर बहुत चतुर था और श्री कृष्ण का भक्त था, वह श्री कृष्ण की कृपा पाना चाहता था। इसके लिए उस मोर ने एक युक्ति सोची वह श्री कृष्ण के द्वार पर जा पहुंचा, जब भी श्री कृष्ण द्वार से अंदर-बाहर आते-जाते तो उनके द्वार पर बैठा वह मोर एक भजन गाता।मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे!...
इस प्रकार प्रतिदिन वह यही गुनगुनाता रहता एक दिन हो गया, 2 दिन हो गये इसी तरह 1 साल व्यतीत हो गया, परन्तु कृष्ण जी ने उसकी एक ना सुनी एक दिन दुखी होकर मोर रोने लगा। तभी वहा से एक मैना उडती जा रही थी, उसने मोर को रोता हुए देखा तो बहुत अचंभित हुई। वह अचंभित इस लिए नहीं थी की मोर रो रहा था वह इस लिए अचंभित हुई की श्री कृष्ण के द्वार पर कोई रो रहा था। मैना मोर के पास गई और उससे उसके रोने का कारण पूंछा वह मोर से बोली -हे मोर तू क्यों रोता हैं तब मोर ने बताया की पिछले एक वर्ष से में इस छलिये को रिझा रहा हु, परन्तु इसने आज तक मुझे पानी भी नही पिलाया। यह सुनकर मैना बोली -में श्री राधे के बरसना से आई हु.. तू मेरे साथ वहीं चल, राधे रानी बहुत दयालु हैं वह तुझ पर अवश्य ही करुणा करेंगी। मोर ने मैना की बात से सहमति जताई और दोनों उड़ चले बरसाने की और उड़ते उड़ते बरसाने पहुच गये। राधा रानी के द्वार पर पहुँच कर मैना ने गाना शुरू किया
श्री राधे राधे, राधे बरसाने वाली राधे...
परन्तु मोर तो बरसाने में आकर भी यही दोहरा रहा था
मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया मेरे, माँ बाप सांवरिया मेरे!...
जब राधा जी ने ये सुना तो वो दोड़ी चली आई और प्रेम से मोर को गले लगा लिया, और मोर से पूंछा कि तू कहाँ से आया है। तब मोर बोला -जय हो राधा रानी आज तक सुना था की तुम करुणामयी हो और आज देख भी लिया। राधा रानी बोली वह कैसे तब मोर बोला में पिछले एक वर्ष से के द्वार पर कृष्ण नाम की धुन गाता रहा हु किन्तु कृष्ण जी ने मेरी सुनना तो दूर कभी मुझको थोड़ा सा पानी भी नही पिलाया..
राधा रानी बोली अरे नहीं मेरे कृष्ण ऐसे नहीं है, तुम एक बार फिर से वही जाओ किन्तु इस बार कृष्ण-कृष्ण नहीं राधे-राधे रटना। मोर ने राधा रानी की बात मान ली और लौट कर गोकुल वापस आ गया फिर से कृष्ण के द्वार पर पहुंचा और इस बार रटने लगा
जय राधे राधे! जय राधे राधे! जय राधे राधे!...
जब कृष्ण जी ने ये सुना तो भागते हुए आये और उन्होंने भी मोर को प्रेम से गले लगा लिया और बोले हे मोर, तू कहा से आया हैं। यह सुनकर मोर बोला - वाह रे छलिये जब एक वर्ष से तेरे नाम की रट लगा रहा था, तो कभी पानी भी नही पूछा और जब आज जय राधे राधे..बोला तो भागता हुआ आ गया ! कृष्ण बोले अरे बातो में मत उलझा, पूरी बात बता..! तब मोर बोला में पिछले एक वर्ष से आपके द्वार पर यही गा रहा हूँ।
मेरा कोई ना सहारा बिना तेरे, गोपाल सांवरिया
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा (Purushottam Mas Mahatmya Katha)
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥पुरुषोत्तम मास माहात्म्य ?
पुराणों में अधिकमास अर्थात मलमास के पुरुषोत्तम मास बनने की बड़ी ही रोचक कथा है। उस कथा के अनुसार बारह महीनों के अलग-अलग स्वामी हैं पर स्वामीविहीन होने के कारण अधिकमास को मलमास कहने से उसकी बड़ी निंदा होने लगी। इस बात से दु:खी होकर मलमास श्रीहरि विष्णु के पास गया और उनसे अपना दुःख रोया।
भक्तवत्सल श्रीहरि उसे लेकर गोलोक पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण विराजमान थे। करुणासिंधु भगवान श्रीकृष्ण ने मलमास की व्यथा जानकर उसे वरदान दिया- अब से मैं तुम्हारा स्वामी हूँ। इससे मेरे सभी दिव्य गुण तुम में समाविष्ट हो जाएंगे। मैं पुरुषोत्तम के नाम से विख्यात हूँ और मैं तुम्हें अपना यही नाम दे रहा हूँ। आज से तुम मलमास के स्थान पर पुरुषोत्तम मास के नाम से जाने जाओगे।
शास्त्रों के अनुसार हर तीसरे साल सर्वोत्तम अर्थात पुरुषोत्तम मास की उत्पत्ति होती है। इस मास के समय जप, तप, दान से अनंत पुण्यों की प्राप्ति होती है। इस मास में श्रीकृष्ण, श्रीमद्भगवतगीता, श्रीराम कथा वाचन और विष्णु भगवान की उपासना की जाती है। इस माह उपासना करने का अपना अलग ही महत्व है। इस माह में तुलसी अर्चना करने का विशेष महत्व बताया गया है।
पुरुषोत्तम मास में कथा पढने, सुनने से भी बहुत लाभ प्राप्त होता है। इस मास में धरती पर शयन, एक ही समय भोजन करने से अनंत फल प्राप्त होते हैं। सूर्य की बारह संक्रान्ति के आधार पर ही वर्ष में 12 माह होते हैं। प्रत्येक तीन वर्ष के बाद पुरुषोत्तम माह आता है।
पंचांग के अनुसार सारे तिथि-वार, योग-करण, नक्षत्र के अलावा सभी मास के कोई न कोई देवता स्वामी हैं, परन्तु पुरुषोत्तम मास का कोई स्वामी न होने के कारण सभी मङ्गल कार्य, शुभ और पितृ कार्य वर्जित माने जाते हैं।
दान, धर्म, पूजन का महत्व शास्त्रों में बताया गया है कि यह माह व्रत-उपवास, दान-पूजा, यज्ञ-हवन और ध्यान करने से मनुष्य के सारे पाप कर्मों का क्षय होकर उन्हें कई गुना पुण्य फल प्राप्त होता है। इस माह आपके द्वारा दान दिया गया एक रुपया भी आपको सौ गुना फल देता है। इसलिए अधिक मास के महत्व को ध्यान में रखकर इस माह दान-पुण्य देने का बहुत महत्व है। इस माह भागवत कथा, श्रीराम कथा श्रवण पर विशेष ध्यान दिया जाता है। धार्मिक तीर्थ स्थलों पर स्नान करने से आपको मोक्ष की प्राप्ति और अनंत पुण्यों की प्राप्ति मिलती है।
पुरुषोत्तम मास का अर्थ जिस माह में सूर्य संक्रान्ति नहीं होती वह अधिक मास कहलाता है। इनमें विशेष रूप से सर्व मांगलिक कार्य वर्जित माने गए हैं, लेकिन यह माह धर्म-कर्म के कार्य करने में बहुत फलदायी है। इस मास में किए गए धार्मिक आयोजन पुण्य फलदायी होने के साथ ही ये आपको दूसरे माहों की अपेक्षा करोड़ गुना अधिक फल देने वाले माने गए हैं।
पुरुषोत्तम मास में दीपदान, वस्त्र एवं श्रीमद्भागवत कथा ग्रंथ दान का विशेष महत्व है। इस
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 1 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 1)
कल्पवृक्ष के समान भक्तजनों के मनोरथ को पूर्ण करने वाले वृन्दावन की शोभा के अधिपति अलौकिक कार्यों द्वारा समस्त लोक को चकित करने वाले वृन्दावनबिहारी पुरुषोत्तम भगवान् को नमस्कार करता हूँ।नारायण, नर, नरोत्तम तथा देवी सरस्वती और श्रीव्यासजी को नमस्कार कर जय की इच्छा करता हूँ।
यज्ञ करने की इच्छा से परम पवित्र नैमिषारण्य में आगे कहे गये बहुत से मुनि आये। जैसे, असित, देवल, पैल, सुमन्तु, पिप्पलायन, सुमति, कश्यप, जाबालि, भृगु, अंगिरा, वामदेव, सुतीक्ष्ण, शरभंग, पर्वत, आपस्तम्ब, माण्डव्य, अगस्त्य, कात्यायन, रथीतर, ऋभु, कपिल, रैभ्य, गौतम, मुद्गल, कौशिक, गालव, क्रतु, अत्रि, बभ्रु, त्रित, शक्ति, बधु, बौधायन, वसु, कौण्डिन्य, पृथु, हारीत, ध्रूम, शंकु, संकृति, शनि, विभाण्डक, पंक, गर्ग, काणाद, जमदग्नि, भरद्वाज, धूमप, मौनभार्गव, कर्कश, शौनक तथा महातपस्वी शतानन्द, विशाल, वृद्धविष्णु, जर्जर, जय, जंगम, पार, पाशधर, पूर, महाकाय, जैमिनि, महाग्रीव, महाबाहु, महोदर, महाबल, उद्दालक, महासेन, आर्त, आमलकप्रिय, ऊर्ध्वबाहु, ऊर्ध्वपाद, एकपाद, दुर्धर, उग्रशील, जलाशी, पिंगल, अत्रि, ऋभु, शाण्डीर, करुण, काल, कैवल्य, कलाधार, श्वेतबाहु, रोमपाद, कद्रु, कालाग्निरुद्रग, श्वेताश्वर, आद्य, शरभंग, पृथुश्रवस् आदि।
शिष्यों के सहित ये सब ऋषि अंगों के सहित वेदों को जानने वाले, ब्रह्मनिष्ठ, संसार की भलाई तथा परोपकार करने वाले, दूसरों के हित में सर्वदा तत्पर, श्रौत, स्मार्त कर्म करने वाले। नैमिषारण्य में आकर यज्ञ करने को तत्पर हुए। इधर तीर्थयात्रा की इच्छा से सूत जी अपने आश्रम से निकले, और पृथ्वी का भ्रमण करते हुए उन्होंने नैमिषारण्य में आकर शिष्यों के सहित समस्त मुनियों को देखा। संसार समुद्र से पार करने वाले उन ऋषियों को नमस्कार करने के लिये, पहले से जहाँ वे इकट्ठे थे वहीं प्रसन्नचित्त सूतजी भी जा पहुँचे।
इसके अनन्तर पेड़ की लाल छाल को धारण करने वाले, प्रसन्नमुख, शान्त, परमार्थ विशारद, समग्र गुणों से युक्त, सम्पूर्ण आनन्दों से परिपूर्ण, ऊर्ध्वपुण्ड्रघारी, राम नाम मुद्रा से युक्त, गोपीचन्दन मृत्तिका से दिव्य, शँख, चक्र का छापा लगाये, तुलसी की माला से शोभित, जटा-मुकुट से भूषित, समस्त आपत्तियों से रक्षा करने वाले, अलौकिक चमत्कार को दिखाने वाले, भगवान् के परम मन्त्र को जपते हुए समस्त शास्त्रों के सार को जानने वाले, सम्पूर्ण प्राणियों के हित में संलग्न, जितेन्द्रिय तथा क्रोध को जीते हुए, जीवन्मुक्त, जगद्गुरु श्री व्यास की तरह और उन्हीं की तरह निःस्पृह् आदिगुणों से युक्त उनको देख उस नैमिषारण्य में रहने वाले समस्त महर्षिगण सहसा उठ खड़े हुए।
विविध प्रकार की विचित्र कथाओं को सुनने की इच्छा प्रगट करने लगे। तब नम्रस्वभाव सूतजी प्रसन्न होकर सब ऋषियों को हाथ जोड़कर बारम्बार दण्डवत् प्रणाम करने लगे।
ऋषि लोग बोले, 'हे सूतजी! आप चिरन्जीवी तथा भगवद्भक्त होवो। हम लोगों ने आपके योग्य सुन्
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 2 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 2)
सूतजी बोले, 'राजा परीक्षित् के पूछने पर भगवान् शुक द्वारा कथित परम पुण्यप्रद श्रीमद्भागवत शुकदेवजी के प्रसाद से सुनकर और अनन्तर राजा का मोक्ष भी देख कर अब यहाँ यज्ञ करने को उद्यत ब्राह्मणों को देखने के लिये मैं आया हूँ और यहाँ यज्ञ में दीक्षा लिये हुए ब्राह्मणों का दर्शन कर मैं कृतार्थ हुआ।'ऋषि बोले, 'हे साधो! अन्य विषय की बातों को त्यागकर भगवान् कृष्णद्वैपायन के प्रसाद से उनके मुख से जो आपने सुना है वही अपूर्व विषय, हे सूत! आप हम लोगों से कहिये। हे महाभाग! संसार में जिससे परे कोई सार नहीं है, ऐसी मन को प्रसन्न करने वाली और जो सुधा से भी अधिकतर हितकर है ऐसी पुण्य कथा, हम लोगों को सुनाइये।'
सूतजी बोले, 'विलोम (ब्राह्मण के चरु में क्षत्रिय का चरु मिल जाने) से उत्पन्न होने पर भी मैं धन्य हूँ जो श्रेष्ठ पुरुष भी आप लोग मुझसे पूछ रहे हैं। भगवान् व्यास के मुख से जो मैंने सुना है वह यथाज्ञान मैं कहता हूँ।
एक समय नारदमुनि नरनारायण के आश्रम में गये। जो आश्रम बहुत से तपस्वियों, सिद्धों तथा देवताओं से भी युक्त है, और बैर, बहेड़ा, आँवला, बेल, आम, अमड़ा, कैथ, जामुन, कदम्बादि और भी अनेक वृक्षों से सुशोभित है। भगवान् विष्णु के चरणों से निकली हुई पवित्र गंगा और अलकनन्दा भी जहाँ बह रही हैं। ऐसे नर नारायण के स्थान में श्री नारद मुनि ने जाकर उन परब्रह्म नारायण को जिनका मन सदा चिन्तन में लगा रहता है, जिसके जितेन्द्रिय, काम क्रोधादि छओ शत्रुओं को जीते हुए हैं, अत्यन्त प्रभा जिनके शरीर से चमक रही है। ऐसे देवताओं के भी देव तपस्वी नारायण को साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर और हाथ जोड़कर नारद उस मुनि व्यापक प्रभु की स्तुति करने लगे।
नारदजी बोले, हे देवदेव! हे जगन्नाथ! हे कृपासागर सत्पते! आप सत्यव्रत हो, त्रिसत्य हो, सत्य आत्मा हो, और सत्यसम्भव हो। हे सत्ययोने! आप को नमस्कार है। मैं आपकी शरण में आया हूँ। आपका जो तप है वह सम्पूर्ण प्राणियों की शिक्षा के लिये और मर्यादा की स्थापना के लिये है। यदि आप तपस्या न करें तो, जैसे कलियुग में एक के पाप करने से सारी पृथ्वी डूबती है वैसे ही एक के पुण्य करने से सारी पृथ्वी तरती है इसमें तनिक भी संशय नहीं है।
‘पहले सत्ययुग आदि में जैसे एक पाप करता था तो सभी पापी हो जाते थे’ ऐसी स्थिति हटाकर कलियुग में केवल कर्ता ही पापों से लिप्त होता है यह आप के तप की स्थिति है। हे भगवन्! कलि में जितने प्राणी हैं सब विषयों में आसक्त हैं।
स्त्री, पुत्र गृह में लगा है चित्त जिनका, ऐसे प्राणियों का हित करने वाला जो हो और मेरा भी थोड़ा कल्याण हो ऐसा विषय विचार कर केवल आप ही कहने के योग्य हैं। वही आपके मुख से सुनने की इच्छा से मैं ब्रह्मलोक से यहाँ आया हूँ। आप ही उपकारप्रिय विष्णु हैं ऐसा वेदों में निश्रित है। इसलिये लोकोपकार के लिये कथा का सार इस समय आप सुनाइये।जिसके श्रवणमात्र से निर्भय मोक्षपद को प्राप्त करते हैं।'
इस प्रकार नारदजी का वचन सुन भगवान् ऋषि आनन्द से खिलखिला उठे और भुवन को पवित्र करने वाली पुण्यकथा आरम्भ की।
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! गोपों की स्त्रियों के मुखकमल के भ्रमर, रास के ईश्वर, र
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 4 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 4)
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! भगवान् पुरुषोत्तम के आगे जो शुभ वचन अधिमास ने कहे वह लोगों के कल्याण की इच्छा से हम कहते हैं, सुनो।अधिमास बोला, 'हे नाथ! हे कृपानिधे! हे हरे! मेरे से जो बलवान् हैं उन्होंने ‘यह मलमास है’ ऐसा कहकर मुझ दीन को अपनी श्रेणी से निकाल दिया है ऐसे यहाँ आये हुए मेरी आप रक्षा क्यों नहीं करते? अपने स्वामी देवता वाले मासादिकों द्वारा शुभ कर्म में वर्जित मुझ स्वामिरहित को देखते ही आपकी दयालुता कहाँ चली गयी और आज यह कठोरता कैसे आ गयी?
हे भगवन्! कंसरूप अग्नि से जलती हुई वसुदेव की स्त्री (देवकी) की रक्षा जैसे आपने की वैसे ही, हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते?
पहले द्रुपद राजा की कन्या द्रौपदी की दुःशासन के दुःख से जैसे आपने रक्षा की वैसे हे दीनदयाला! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते?
यमुना में कालिय नाग के विष से गौ चराने वालों तथा पशुओं की आपने जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते?
पशु और पशुओं को पालने वालों एवं पशुपालकों की स्त्रियों की जैसे पहले व्रज में सर्पत के वन में लगी हुई अग्नि से आपने रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते।
मगध देश के राजा जरासंध के बन्धन से राजाओं की जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आप कैसे रक्षा नहीं करते।
आपने ग्राह के मुख से गजराज की झट आकर जैसे रक्षा की वैसे हे दीनवत्सल! कहिये मुझ शरण आये की आज कैसे रक्षा नहीं करते।'
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार भगवान् को कह स्वामी रहित मलमास, आँसू बहता मुख लिये जगत्पति के सामने चुपचाप खड़ा रहा। उसको रोते देखते ही भगवान् शीघ्र ही दयार्द्र हो गये और पास में खड़े दीनमुख मलमास से बोले।
श्रीहरि बोले, 'हे वत्स! क्यों इस समय अत्यन्त दुःख में डूबे हुए हो ऐसा कौन बड़ा भारी दुःख तुम्हारे मन में है? दुःख में डूबते हुए तुझको हम बचायेंगे, तुम शोक मत करो। मेरी शरण में आया फिर शोक करने के योग्य नहीं रहता है। यहाँ आकर महादुःखी नीच भी शोक नहीं करता किसलिये तुम यहाँ आकर शोक में मन को दबाये हुए हो। जहाँ आने से न शोक होता है, न कभी बुढ़ौती आती है, न मृत्यु का भय रहता है, किन्तु नित्य आनन्द रहा करता है इस प्रकार के बैकुण्ठ में आकर तुम कैसे दुःखित हो? तुमको यहाँ पर दुःखित देखकर वैकुण्ठवासी बड़े विस्मय को प्राप्त हो रहे हैं, हे वत्स! तुम कहो इस समय तुम मरने की क्यों इच्छा करते हो?'
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार भगवान् के वाक्य सुनकर बोझा लिये हुए आदमी जैसे बोझा रख कर श्वास पर श्वास लेता है इसी प्रकार श्वासोच्छ्वास लेकर अधिमास मधुसूदन से बोला।
अधिमास बोला, 'हे भगवन्! आप सर्वव्यापी हैं, आप से अज्ञात कुछ नहीं है, आकाश की तरह आप विश्व में व्याप्त होकर बैठे हैं। चर-अचर में व्याप्त विष्णु आप सब के साक्षी हैं,
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 7 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 7)
सूतजी बोले - हे तपोधन! आप लोगों ने जो प्रश्न किया है वही प्रश्न नारद ने नारायण से किया था सो नारायण ने जो उत्तर दिया वही मैंआप लोगों से कहता हूँ।नारदजी बोले - विष्णु ने अधिमास का अपार दुःख निवेदन करके जब मौन धारण किया तब हे बदरीपते! पुरुषोत्तम ने क्या किया? सो इस समय आप हमसे कहिये।
श्रीनारायण बोले - हे वत्स! गोलोकनाथ श्रीकृष्ण ने विष्णु के प्रति जो कहा वह अत्यन्त गुप्त है परन्तु भक्त, आस्तिक, सेवक, दम्भरहित, अधिकारी पुरुष को कहना चाहिये। अतः मैं सब कहता हूँ सुनो।
यह आख्यान सत्कीर्ति, पुण्य, यश, सुपुत्र का दाता, राजा को वश में करने वाला है और दरिद्रता को नाश करने वाला एवं बड़े पुण्यों से सुनने को मिलता है। जिस प्रकार इसको सुने उसी प्रकार अनन्य भक्ति से सुने हुए कर्मों को करना भी चाहिये।
श्रीपुरुषोत्तम बोले - हे विष्णो! आपने बड़ा अच्छा किया जो मलमास को लेकर यहाँ आये। इससे आप लोक में कीर्ति पावेंगे। आपने जिसका उद्धार स्वीकार किया, उसको हमने ही स्वीकार किया, ऐसा समझें। अतः इसको हम अपने समान सर्वोपरि करेंगे। गुणों से, कीर्ति के अनुभाव से, षडैश्वयर्य से, पराक्रम से, भक्तों को वर देने से और भी जो मेरे गुण हैं, उनसे मैं पुरुषोत्तम जैसे लोक में प्रसिद्ध हूँ। वैसे ही यह मलमास भी लोकों में पुरुषोत्तम करके प्रसिद्ध होगा। मेरे में जितने गुण हैं वे सब आज से मैंने इसे दे दिये। पुरुषोत्तम जो मेरा नाम लोक तथा वेद में प्रसिद्ध है, वह भी आपकी प्रसन्नता का अर्थ आज मैंने इसे दे दिया। हे मधुसूदन! आज से मैं इस अधिमास का स्वामी भी हुआ।
इसके पुरुषोत्तम इस नाम से सब जगत् पवित्र होगा। मेरी समानता पाकर यह अधिमास सब मासों का राजा होगा। यह अधिमास जगत्पूज्य एवं जगत् से वन्दना करवाने के योग्य होगा। इसकी पूजा और व्रत जो करेंगे उनके दुःख और दारिद्रय का नाश होगा। चैत्रादि सब मास सकाम हैं इसको हमने निष्काम किया है। इसको हमने अपने समान समस्त प्राणियों को मोक्ष देने वाला बनाया है। जो प्राणी सकाम अथवा निष्काम होकर अधिमास का पूजन करेगा वह अपने सब कर्मों को भस्म कर निश्चय मुझको प्राप्त होगा।
जिस परम पद-प्राप्ति के लिये बड़े भाग्यवाले, यति, ब्रह्मचारी लोग तप करते हैं और महात्मा लोग निराहार व्रत करते हैं एवं दृढ़व्रत लोग फल, पत्ता, वायु-भक्षण कर रहते हैं और काम, क्रोध रहित जितेन्द्रिय रहते हैं वे, और वर्षाकाल में मैदान में रहने वाले, जाड़े में शीत, गरमी में धूप सहन करने वाले, मेरे पद के लिये यत्न करते रहते हैं, हे गरुडध्वज! तब भी वे मेरे अव्यय परम पद को नहीं प्राप्त होते हैं, परन्तु पुरुषोत्तम के भक्त एक मास के ही व्रत से बिना परिश्रम जरा, मृत्यु रहित उस परम पद को पा लेंगे।
यह अधिमास व्रत सम्पूर्ण साधनों में श्रेष्ठ साधन है और समस्त कामनाओं के फल की सिद्धि को देने वाला है। अतः इस पुरुषोत्तम मास का व्रत सबको करना चाहिये।
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 8 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 8)
सूतजी बोले, 'हे तपोधन! विष्णु और श्रीकृष्ण के संवाद को सुन सन्तुष्टमन नारद, नारायण से पुनः प्रश्न करने लगे।
नारदजी बोले, 'हे प्रभो! जब विष्णु बैकुण्ठ चले गये तब फिर क्या हुआ? कहिये। आदिपुरुष कृष्ण और हरिसुत का जो संवाद है वह सब प्राणियों को कल्याणकर है।'इस प्रकार प्रश्न् सुन फिर भगवान् बदरीनारायण जगत् को आनन्द देने वाला बृहत् आख्यान कहने लगे।
श्रीनारायण बोले, 'तदनन्तर विष्णु बड़े प्रसन्न होकर बैकुण्ठ गये और वहाँ जाकर हे नारद! अधिमास को अपने पास ही बसा लिया अधिमास बैकुण्ठ में वास पाकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ और बारहों मासों का राजा होकर विष्णु के साथ रहने लगा। बारहों मासों में मलमास को श्रेष्ठ बनाकर विष्णु मन से सन्तुष्ट हुए।
हे मुने! अनन्तर भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले भगवान् युधिष्ठिर और द्रौपदी की ओर देखते हुए, कृपा करके अर्जुन से यह बोले।'
श्रीकृष्ण बोले, 'हे राजशार्दूल! हमको मालूम होता है कि तपोवन में आकर आप लोगों ने दुःखित होने के कारण पुरुषोत्तम मास का आदर नहीं किया। वृन्दावन की शोभा के नाथ भगवान् का प्रियपात्र पुरुषोत्तम मास आप वनवासियों का प्रमाद से व्यतीत हो गया। भीष्म, द्रोणाचार्य, कर्ण के भय से सन्त्रस्त मन आप सब लोगों ने भय और द्वेष से मुक्त होने के कारण प्राप्त पुरुषोत्तम मास का ध्यान नहीं किया।
कृष्णद्वैपायन व्यासदेव से प्राप्त विद्या के आराधन में तत्पर, रणवीर अर्जुन के इन्द्रकील पर्वत पर चले जाने पर उसके वियोग से दुःखित आप लोगों ने पुरुषोत्तम मास को नहीं जाना। अब यदि आप यह पूछें कि हम क्या करें? तो मैं यही कहूँगा कि भाग्य का अवलम्बन करो। पुरुषों का जैसा अदृष्ट होता है वैसा ही सदा भासता है। भाग्य से उत्पन्न जो फल है वह अवश्य ही भोगना पड़ता है। सुख, दुःख भय, कुशलता इत्यादि भाग्यानुसार ही मनुष्यों को प्राप्त होते हैं। अतः अदृष्ट पर विश्वास रखने वाले आप लोगों को अदृष्ट पर निर्भर रहना चाहिये।
अब इसके बाद आप लोगों के दुःख का दूसरा कारण और बड़ा आश्चर्यजनक इतिहास के सहित कहते हैं, 'हे महाराज! हमारे मुख से कहा हुआ सुनो।
श्रीकृष्ण बोले, 'यह भाग्यशालिनी द्रौपदी पूर्व जन्म में बड़ी सुन्दरी मेधावी ऋषि के घर में उत्पन्न हुई थी। समय व्यतीत होने पर जब १० वर्ष की हुई तब क्रम से रूप और लावण्य से युक्त, अति सुन्दरी और आकर्णान्त नेत्र से शोभायमान हुई। चातुर्य गुण से युक्त यह अपने पिता की एकमात्र इकलौती कन्या थी। अतः चतुरा, गुणवती, सुन्दरी, यह पिता की बड़ी लाड़ली थी।
मेधावी ने सदा लड़के की तरह इसे माना, कभी भी अनादर नहीं किया। यह भी साहित्यशास्त्र में पण्डिता और नीतिशास्त्र में भी प्रवीणा थी। इसकी माता इसकी छोटी अवस्था में ही मर गई थी, पिता ने ही प्रसन्नता पूर्वक पाला-पोसा था। पास में रहने वाली अपनी सखी के पुत्र-पौत्रादि सुख को देख इसको भी स्पृहा हुई, और तब यह सोचने लगी कि हमें भी यह सुख कैसे प्राप्त होगा? गुण और भाग्य का निधि, सुख देने वाला पति और सत्पुत्र कैसे होंगे?
इस प्रकार मनोरथ विचारती हुई सोचने लगी कि पहले मेरा विवाह उपस्थित था, परन्तु भाग्य ने बिगाड़ दिया। अब क्या करने से अथवा क्या
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 10 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 10)
नारद जी बोले, 'हे तपोनिधे! परम क्रोधीदुर्वासा मुनि ने विचार करके उस कन्या से क्या उपदेश दिया। सो आप मुझसे कहिये।सूतजी बोले, 'हे द्विजों! नारद का वचन सुनकर, समस्त प्राणियों का हितकर दुर्वासा का गुह्य वचन बदरीनारायण बोले।
श्रीनारायण बोले, 'हे नारद! मेघावी ऋषि की कन्या के दुख को दूर करने के लिये दुर्वासा ऋषि ने जो कहा वह सुनो।
दुर्वासा ऋषि बोले, 'हे सुन्दरि! गुप्त से भी गुप्त उपाय मैं तुझसे कहता हूँ। यह विषय किसी से भी कहने योग्य नहीं है, तथापि तेरे लिये तो मैंने ये विचार ही लिया है। मैं विस्तार पूर्वक न कहकर तुझसे संक्षेप में कहता हूँ। हे सुभगे! इस मास से तीसरा मास जो आवेगा वह पुरुषोत्तम मास है। इस मास में तीर्थ में स्नान कर मनुष्य भ्रूणहत्या से छूट जाता है। हे सुन्दरि! कार्तिक आदि बारह मासों में इस पुरुषोत्तम मास के बराबर कोई मास नहीं है। जितने मास तथा पक्ष और पर्व हैं वे सब पुरुषोत्तम मास की सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हैं। वेदोक्त साधन और जो परमपद प्राप्ति के साधन हैं वे भी इस मास की सोलहवीं कला के बराबर नहीं हैं। बारह हजार वर्ष गंगा स्नान करने से जो फल मिलता है और सिंहस्थ गुरु में गोदावरी पर एक बार स्नान करने से जो फल मिलता है, हे सुन्दरि! वही फल पुरुषोत्तम मास में किसी भी तीर्थ पर एक बार स्नान करने मात्र से मिल जाता है। हे बाले! यह मास श्रीकृष्ण का अत्यन्त प्यारा है और नाम से ही यह भगवान् का स्मारक है। इस मास में पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा, पूजा करने से समस्त कामनायें सिद्ध होती हैं। अतः इस पुरुषोत्तम मास का तू शीघ्र व्रत कर। पुरुषोत्तम भगवान् की तरह प्रसन्नता पूर्वक मैंने भी इस मास की सेवा की है।
एक समय क्रोध में मैंने अम्बरीष राजा को भस्म करने के लिये अर्थ कृत्या भेजी थी, सो हे बाले! तब हरि ने जलता हुआ सुदर्शन चक्र मुझको ही भस्म करने के लियै उसी समय मेरे पास भेजा। तब पुरुषोत्तम मास के प्रभाव से ही वह चक्र हट गया। हे सुन्दरि! वह चक्र त्रैलोक्य को भस्म करने का सामर्थ्य रखने वाला जब मेरे पास आकर खाली चला गया तब मुझे बड़ा विस्मय हुआ। इसलिये हे सुभगे! तू श्रीपुरुषोत्तम मास का व्रत कर।' इस प्रकार मुनि की कन्या को कहकर दुर्वासा ऋषि ने विराम लिया।
श्रीकृष्णजी बोले, 'हे राजन! दुर्वासा का वचन सुन भावों की प्रबलता के कारण असूया से प्रेरित वह कन्या मूर्खतावश दुर्वासा से बोली।
बाला बोली, 'हे ब्रह्मन्! हे मुने! आपने जो कहा वह मुझे रुचता नहीं है। माघादि मास कैसे कुछ भी फल देनेवाले नहीं हैं ? कार्तिक मास कम है ? ऐसा आप कैसे कहते हैं ? सो कहिये। वैशाख मास सेवित हुआ क्या इच्छित कामों को नहीं देता है ? सदाशिव आदि से लेकर सब देवता सेवा करने पर क्या फल नहीं देते हैं ? अथवा पृथ्वी पर प्रत्यक्ष देव सूर्य और जगत् की माता देवी क्या सब कामनाओं को देने वाली नहीं हैं ? श्रीगणेश क्या सेवा पाकर इच्छित वर नहीं देते हैं ? व्यतिपात आदि योगों को और शर्व आदि देवताओं को भी, सबको उलंघन करके पुरुषोत्तम मास की प्रशंसा करते क्या आपको लज्जा नहीं आती है ? यह मास त़ बड़ा मलिन और सब कामों में निन्दित है। हे मुने! इस रवि की संक्रांति स
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 3 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 3)
ऋषिगण बोले, 'हे महाभाग! नर के मित्र नारायण नारद के प्रति जो शुभ वचन बोले वह आप विस्तार पूर्वक हमसे कहें।'
सूतजी बोले, 'हे द्विजसत्तमो! नारायण ने नारद के प्रति जो सुन्दर वचन कहे वह जैसे मैंने सुने हैं वैसे ही कहता हूँ आप लोग सुनें।'
नारायण बोले, 'हे नारद! पहले महात्मा श्रीकृष्णचन्द्र ने राजा युधिष्ठिर से जो कहा था वह मैं कहता हूँ सुनो।
एक समय धार्मिक राजा अजातशत्रु युधिष्ठिर, छलप्रिय धृतराष्ट्र के दुष्टपुत्रों द्वारा द्यूतक्रीड़ा में हार गये। सबके देखते-देखते अग्नि से उत्पन्न हुई धर्मपरायणा द्रौपदी के बालों को पकड़ कर दुष्ट दुःशासन ने खींचा, और खींचने के बाद उसके वस्त्र उतारने लगा तब भगवान् कृष्ण ने उसकी रक्षा की। पीछे पाण्डव राज्य को त्याग काम्यक वन को चले गये। वहाँ अत्यन्त क्लेश से युक्त वे वन के फलों को खाकर जीवन बिताने लगे। जैसे जंगली हाथियों के शरीर में बाल रहते हैं इसी प्रकार पाण्डवों के शरीर में बाल हो गये।
इस प्रकार दुःखित पाण्डवों को देखने के लिये भगवान् देवकीसुत मुनियों के साथ काम्यक वन में गये। उन भगवान् को देखकर मृत शरीर में पुनः प्राण आ जाने की तरह युधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन आदि प्रेमविह्वल होकर सहसा उठ खड़े हुए और प्रीति से श्रीकृष्ण के गले मिले, और भगवान् कृष्ण के चरण कमलों में भक्ति से नमस्कार करने लगे, द्रौपदी ने भी धीरे-धीरे वहाँ आकर आलस्यरहित होकर भगवान् को शीघ्र नमस्कार किया।
उन दुःखित पाण्डवों को मृग के चर्म के वस्त्रों को पहने देख और समस्त शरीर में धूल लगी हुई, रूखा शरीर, चारों तरफ बाल बिखरे हुए। द्रौपदी को भी उसी प्रकार दुर्बल शरीरवाली और दुःखों से घिरी हुई देखा। इस तरह दुःखित पाण्डवों को देखकर वे अत्यन्त दुःखी हुए।
भक्तवत्सल भगवान् धृतराष्ट्र के पुत्रों को जला देने की इच्छा से उन पर क्रुद्ध हुए। विश्व के आत्मा, बाहों को चढ़ा गुरेर कर देखने वाले, करोड़ों काल के कराल मुख की तरह मुखवाले, धधकती हुई प्रलय की अग्नि के समान उठे हुए, ओठों को दाँत के नीचे जोर से दबाकर, तीनों लोकों को जला देने की तरह ऐसे उद्घत हुए जैसे श्रीसीता के वियोग से सन्तप्त भगवान् रामचन्द्र को रावण पर जैसा क्रोध आया था।
उस प्रकार से क्रुद्ध भगवान् को देखकर काँपते हुए अर्जुन, कृष्ण को प्रसन्न करने के लिए द्रौपदी, धर्मराज तथा और लोगों से भी अनुमोदित होकर शीघ्र ही हाथ जोड़कर उनकी स्तुति करने लगे।
अर्जुन बोले, 'हे कृष्ण! हे जगत् के नाथ! हे नाथ! मैं जगत् के बाहर नहीं हूँ। आप ही जगत् की रक्षा करने वाले हैं, हे प्रभो! क्या मेरी रक्षा आप न करेंगे? जिनके नेत्र के देखने से ही ब्रह्मा का पतन हो जाता है उनके क्रोध करने से क्या नहीं हो सकता है, यह कौन जानता है कि क्या होगा?
हे संहार करने वाले! क्रोध का संहार कीजिये। हे तात के पात! हे जगत्पते! आप ऐसे महापुरुषों के क्रोध से संसार का प्रलय हो जाता है। सम्पूर्ण तत्त्व को जानने वाले सर्व वस्तुओं के कारण के कारण, वेद और वेदांग के बीज के बीज आप साक्षात् श्रीकृष्ण हैं मैं आपकी वन्दना करता हूँ। आप ईश्वर हैं इस चराचरात्मक संसार को आपने उत्पन्न किया है, सर्वमंगल के मांगल्य हैं और सनातन के बीजरूप हैं। इसलिये एक के अपराध से अपने बनाए समस्त विश्व का आप नाश कैसे करेंगे? कौन भला ऐसा होगा जो मच्छरों को जलाने के लिये अपने घर को जला देता हो?'
श्रीनारायण बोले, 'दूसरों की वीरता को मर्दन करने वाले अर्जुन ने भगवान् से इस प्रकार निवेदन कर प्रणाम किया।
सूतजी बोले, 'श्रीकृष्णजी ने अपने क्रोध को शान्त किया और स्वयं भी चन्द्रमा की तरह शान्त हो गये। इस प्रकार भगवान् को शान्त देखकर पाण्डव स्वस्थ हुए। प्रेम से प्रसन्नमुख एवं प्रेमविह्नल हुए सब ने भगवान् को प्रणाम किया और जंगली कन्द, मूल, फल आदि से उनकी पूजा की।
नारायण बोले, 'तब शरण में जाने योग्य, भक्तों के ऊपर कृपा करने वाले श्रीकृष्ण को प्रसन्न जान, विशेष प्रेम से भरे हुए, नम्र अर्जुन ने बारम्बार नमस्कार किया और जो प्रश्न आपने हमसे किया है वही प्रश्न उन्होंने श्रीकृष्ण से किया।
इस प्रकार अर्जुन का प्रश्न सुनकर श्रीकृष्ण क्षणमात्र मन से सोचकर अपने सुहृद्वर्ग पाण्डवों को और व्रत को धारण की हुई द्रौपदी को आश्वासन देते हुए वक्ताओं में श्रेष्ठ श्रीकृष्ण पाण्डवों से हितकर वचन बोले।
श्रीकृष्णजी बोले, 'हे राजन्! हे महाभाग! हे बीभत्सो! अब मेरा वचन सुनो। आपने यह प्रश्न अपूर्व किया है। आपको उत्तर देने में मुझे उत्साह नहीं हो रहा है। इस प्रश्न का उत्तर गुप्त से भी गुप्त है ऋषियों को भी नहीं विदित है फिर भी हे अर्जुन! मित्र के नाते अथवा तुम हमारे भक्त हो इस कारण से हम कहते हैं।
हे सुव्रत! वह जो उत्तर है वह अति उग्र है, अतः क्रम से सुनो! चैत्रादि जो बारह मास, निमेष, महीने के दोनों पक्ष, घड़ियाँ, प्रहर, त्रिप्रहर, छ ऋतुएँ, मुहूर्त दक्षिणायन और उत्तरायण, वर्ष चारों युग, इसी प्रकार परार्ध तक जो काल है यह सब और नदी, समुद्र, तालाब, कुएँ, बावली, गढ़इयाँ, सोते, लता, औषधियों, वृक्ष, बाँस आदि पेड़ वन की औषधियाँ, नगर, गाँव, पर्वत, पुरियाँ ये सब मूर्तिवाले हैं और अपने गुणों से पूजे जाते हैं। इनमें ऐसा कोई अपूर्व व्यक्ति नहीं है जो अपने अधिष्ठातृ देवता के बिना रहता हो, अपने अपने अधिकार में पूजे जाने वाले ये सभी फल को देने वाले हैं। अपने-अपने अधिष्ठातृ देवता के योग के माहात्म्य से ये सब सौभाग्यवान् हैं।
हे पाण्डुनन्दन! एक समय अधिमास उत्पन्न हुआ। उस उत्पन्न हुए असहाय निन्दित मास को सब लोग बोले कि यह मलमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है अतः पूजने योग्य नहीं है। यह मास मलरूप होने से छूने योग्य नहीं है और शुभ कर्मों में अग्राह्य है इस प्रकार के वचनों को लोगों के मुख से सुनकर यह मास निरुद्योग, प्रभारहित, दुःख से घिरा हुआ, अति खिन्नमन, चिन्ता से ही ग्रस्तमन होकर व्यथित हृदय से मरणासन्न की तरह हो गया। फिर वह धैर्य धारण कर मेरी शरण में आया।
हे नर! वैकुण्ठ भवन में जहाँ मैं रहता था वहाँ पहुँचा और मेरे घर में आकर मुझ परम पुरुषोत्तम को इसने देखा। उस समय अमूल्य रन्तों से जटित सुवर्ण के सिंहासन पर बैठे मुझको देखकर यह भूमि पर साष्टांग दण्डवत् कर हाथ जोड़कर नेत्रों से बराबर आँसुओं की धारा बहाता हुआ धैर्य धारण कर गद्गद वाणी से बोला।'
सूतजी बोले, 'इस प्रकार महामुनि बदरीनाथ कथा कहकर चुप हो गये। तब नारायण के मुख से कथा सुन भक्तों के ऊपर दया करने वाले नारदमुनि पुनः बोले।'
नारद बोले, 'इस प्रकार अपनी पूर्ण कला से विराजमान भगवान् विष्णु के निर्मल भवन में जाकर भक्ति द्वारा मिलने वाले, जगत् के पापों को दूर करने वाले, योगियों को भी शीघ्र न मिलने वाले जगत् को अभयदान देने वाले, ब्रह्मरूप, मुकुंद जहाँ पर थे उनके चरण कमलों की शरण में आया हुआ अधिमास क्या बोला?
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 5 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 5)
नारद जी बोले, 'हे महाभाग! हे तपोनिधे! इस प्रकार अधिमास के वचनों को सुनकर हरि ने चरणों के आगे पड़े हुए अधिमास से क्या कहा?'श्रीनारायण बोले, 'हे पाप रहित! हे नारद! जो हरि ने मलमास के प्रति कहा वह हम कहते हैं सुनो! हे मुनिश्रेष्ठ! आप जो सत्कथा हमसे पूछते हैं आप धन्य हैं।'
श्रीकृष्ण बोले, 'हे अर्जुन! बैकुण्ठ का वृत्तान्त हम तुम्हारे सम्मुख कहते हैं, सुनो! मलमास के मूर्छित हो जाने पर हरि के नेत्र से संकेत पाये हुए गरुड़ मूर्छित मलमास को पंख से हवा करने लगे। हवा लगने पर अधिमास उठ कर फिर बोला हे विभो! यह मुझको नहीं रुचता है।
अधिमास बोला, 'हे जगत् को उत्पन्न करने वाले! हे विष्णो! हे जगत्पते! मेरी रक्षा करो! रक्षा करो! हे नाथ! मुझ शरण आये की आज कैसे उपेक्षा कर रहे हैं।'
इस प्रकार कहकर काँपते हुए घड़ी-घड़ी विलाप करते हुए अधिमास से, बैकुण्ठ में रहने वाले हृषीकेश हरि, बोले।
श्रीविष्णु बोले, 'उठो-उठो तुम्हारा कल्याण हो, हे वत्स! विषाद मत करो। हे निरीश्वर! तुम्हारा दुःख मुझको दूर होता नहीं ज्ञात होता है।'
ऐसा कहकर प्रभु मन में सोचकर क्षणभर में उपाय निश्चय करके पुनः अधिमास से मधुसूदन बोले।
श्रीविष्णु बोले, 'हे वत्स! योगियों को भी जो दुर्लभ गोलोक है वहाँ मेरे साथ चलो जहाँ भगवान् श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम, ईश्वर रहते हैं।
गोपियों के समुदाय के मध्य में स्थित, दो भुजा वाले, मुरली को धारण किए हुए नवीन मेघ के समान श्याम, लाल कमल के सदृश नेत्र वाले, शरत्पूर्णिमा के चन्द्रमा के समान अति सुन्दर मुख वाले, करोड़ों कामदेव के लावण्य की मनोहर लीला के धाम, पीताम्बर धारण किये हुए, माला पहिने, वनमाला से विभूषित, उत्तम रत्ना भरण धारण किये हुए, प्रेम के भूषण, भक्तों के ऊपर दया करने वाले, चन्दन चर्चित सर्वांग, कस्तूरी और केशर से युक्त, वक्षस्थल में श्रीवत्स चिन्ह से शोभित, कौस्तुक मणि से विराजित, श्रेष्ठ से श्रेष्ठ रत्नों के सार से रचित किरीट वाले, कुण्डलों से प्रकाशमान, रत्नोंल के सिंहासन पर बैठे हुए, पार्षदों से घिरे हुए जो हैं, वही पुराण पुरुषोत्तम परब्रह्म हैं। वे सर्वतन्त्रर स्वतन्त्रउ हैं, ब्रह्माण्ड के बीज, सबके आधार, परे से भी परे, निस्पृह, निर्विकार, परिपूर्णतम, प्रभु, माया से परे, सर्वशक्तिसम्पन्न, गुणरहित, नित्यशरीरी। ऐसे प्रभु जिस गोलोक में रहते हैं वहाँ हम दोनों चलते हैं वहाँ श्रीकृष्णचन्द्र तुम्हारा दुःख दूर करेंगे।'
श्रीनारायण बोले, 'ऐसा कहकर अधिमास का हाथ पकड़ कर हरि, गोलोक को गये। हे मुने! जहाँ पहले के प्रलय के समय में वे अज्ञानरूप महा अन्धकार को दूर करने वाले, ज्ञानरूप मार्ग को दिखाने वाले केवल ज्योतिः स्वरूप थे। जो ज्योति करोड़ों सूर्यों के समान प्रभा वाली, नित्य, असंख्य और विश्वप की कारण थी तथा उन स्वेच्छामय विभुकी ही वह अतिरेक की चरम सीमा को प्राप्त थी। जिस ज्योति के अन्दर ही मनोहर तीन लोक विराजित हैं। हे मुने! उसके ऊपर अविनाशी ब्रह्म की तरह गोलोक विराजित है।
तीन करोड़ योजन का चौतरफा जिसका विस्ता
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 6 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 6)
नारदजी बोले - भगवान् गोलोक में जाकर क्या करते हैं? हे पापरहित! मुझ श्रोता के ऊपर कृपा करके कहिये।
श्रीनारायण बोले - हे नारद! पापरहित! अधिमास को लेकर भगवान् विष्णु के गोलोक जाने पर जो घटना हुई वह हम कहते हैं, सुनो..
उस गोलोक के अन्दर मणियों के खम्भों से सुशोभित, सुन्दर पुरुषोत्तम के धाम को दूर से भगवान् विष्णु देखते हैं। उस धाम के तेज से बन्द हुए नेत्र वाले विष्णु धीरे-धीरे नेत्र खोलकर और अधिमास को अपने पीछे कर धीरे-धीरे धाम की ओर जाते हैं। अधिमास के साथ भगवान् के मन्दिर के पास जाकर विष्णु अत्यन्त प्रसन्न हुए और उठकर खड़े हुए द्वारपालों से अभिनन्दित भगवान् विष्णु पुरुषोत्तम भगवान् की शोभा से आनन्दित होकर धीरे-धीरे मन्दिर में गये और भीतर जाकर शीघ्र ही श्रीपुरुषोत्तम कृष्ण को नमस्कार करते हैं।
गोपियों के मण्डल के मध्य में रत्नमय सिंहासन पर बैठे हुए कृष्ण को नमस्कार कर पास में खड़े होकर विष्णु बोले।
श्रीविष्णु बोले - गुणों से अतीत, गोविन्द, अद्वितीय, अविनाशी, सूक्ष्म, विकार रहित, विग्रहवान, गोपों के वेष के विधायक, छोटी अवस्था वाले, शान्त स्वरूप, गोपियों के पति, बड़े सुन्दर, नूतन मेघ के समान श्याम, करोड़ों कामदेव के समान सुन्दर, वृन्दावन के अन्दर रासमण्डल में बैठने वाले पीतरंग के पीताम्बर से शोभित, सौम्य, भौंहों के चढ़ाने पर मस्तक में तीन रेखा पड़ने से सुन्दर आकृति वाले, रासलीला के स्वामी, रासलीला में रहने वाले, रासलीला करने में सदा उत्सुक, दो भुजा वाले, मुरलीधर, पीतवस्त्रधारी, अच्युत, ऐसे भगवान् की मैं वन्दना करता हूँ।
इस प्रकार स्तुति करके भगवान् श्रीकृष्ण को नमस्कार कर, पार्षदों द्वारा सत्कृत विष्णु रत्नतसिंहासन पर कृष्ण की आज्ञा से बैठे।
श्रीनारायण बोले - यह विष्णु का किया हुआ स्तोत्र प्रातःकाल उठ कर जो पढ़ता है उसके समस्त पाप नाश हो जाते हैं और अनिष्ट स्वप्न भी अच्छे फल को देते हैं, और पुत्रपौत्रादि को बढ़ाने वाली भक्ति श्रीगोविन्द में होती है, आकीर्ति का नाश होकर सत्कीर्ति की वृद्धि होती है।
भगवान् विष्णु बैठ गये और कृष्ण के आगे काँपते हुए अधिमास को कृष्ण के चरण कमलों में नमन कराते हैं।
तब श्रीकृष्ण ने विष्णु से पूछा कि यह कौन है? कहाँ से यहाँ आया है? क्यों रोता है? इस गोलोक में तो कोई भी दुःखभागी होता नहीं है। इस गोलोक में रहने वाले तो सर्वदा आनन्द में मग्न रहते हैं। ये लोग तो स्वप्न में भी दुष्टवार्ता या दुःखभरा समाचार सुनते ही नहीं। अतः हे विष्णो! यह क्यों काँपता है और आँखों से आँसू बहाता दुःखित हमारे सम्मुख किस लिये खड़ा है?
श्रीनारायण बोले - नवीन मेघ के समान श्यामसुन्दर, गोलोक के नाथ का वचन सुन, सिंहासन से उठकर महाविष्णु मलमास की सम्पूर्ण दुःख-गाथा कहते हुए बोले।
श्रीविष्णु बोले - हे वृन्दावन की शोभा के नाथ! हे श्रीकृष्ण! हे मुरलीधर! इस अधिमास के दुःख को आपके सामने कहता हूँ, आप सुने। इसके दुःखित होने के कारण ही स्वामी रहित अधिमास को लेकर मैं आपके पास आया हूँ, इसके उग्र दुःखरूप अग्नि को आप शान्त करें। यह अधिमास सूर्य की संक्रान्ति से रहित है, मलिन है, शुभकर्म में सर्वदा वर्जित है। स्वामी रहित मास में स्नान आदि नहीं करना चाहिये, ऐसा कहकर वनस्पति आदिकों ने इसका निरादर किया है।
द्वादश मास, कला, क्षण, अयन, संवत्सर आदि सेश्विरों ने अपने-अपने स्वामी के गर्व से इसका अत्यन्त निरादर किया। इसी दुःखाग्नि से जला हुआ यह मरने के लिये तैयार हुआ, तब अन्य दयालु व्यक्तियों द्वारा प्रेरित होकर, हे हृषीकेश! शरण चाहने की इच्छा से हमारे पास आया और काँपते-काँपते घड़ी-घड़ी रोते-रोते अपना सब दुःखजाल इसने कहा। इसका यह बड़ा भारी दुःख आपके बिना टल नहीं सकता, अतः इस निराश्रय का हाथ पकड़कर आपकी शरण में लाया हूँ।
दूसरों का दुःख आप सहन नहीं कर सकते हैं ऐसा वेद जानने वाले लोग कहते हैं। अतएव इस दुःखित को कृपा करके सुख प्रदान कीजिये।
हे जगत्पते! - आपके चरणकमलों में प्राप्त प्राणी शोक का भागी नहीं होता है ऐसा वेद जानने वालों का कहना कैसे मिथ्या हो सकता है? मेरे ऊपर कृपा करके भी इसका दुःख दूर करना आपका कर्तव्य है क्योंकि सब काम छोड़कर इसको लेकर मैं आया हूँ मेरा आना सफल कीजिये। ‘बारम्बार स्वामी के सामने कभी भी कोई विषय न कहना चाहिये’ ऐसी नीति के जानने वाले बड़े-बड़े पण्डित सर्वदा कहा करते हैं।
इस प्रकार अधिमास का सब दुःख भगवान् कृष्ण से कहकर हरि, कृष्ण के मुखकमल की ओर देखते हुए कृष्ण के पास ही हाथ जोड़ कर खड़े हो गये।
ऋषि लोग बोले - हे सूतजी! आप दाताओं में श्रेष्ठ हैं आपकी दीर्घायु हो, जिससे हम लोग आपके मुख से भगवान् की लीला के कथारूप अमृत का पान करते रहें। हे सूत! गोलोकवासी भगवान् कृष्ण ने विष्णु के प्रति फिर क्या कहा? और क्या किया? इत्यादि लोकोपकारक विष्णु-कृष्ण का संवाद सब आप हम लोगों से कहिये।
परम भगवद्भक्त नारद ने नारायण से क्या पूछा? हे सूत! इसको आप इस समय हम लोगों से कहिये। नारद के प्रति कहा हुआ भगवान् का वचन तपस्वियों के लिये परम औषध है।
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 9 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 9)
सूतजी बोले, 'तदनन्तर विस्मय से युक्त नारद मुनि ने मेधावी ऋषि की कन्या का अद्भुत वृत्तान्त पूछा।
नारदजी बोले, 'हे मुने! उस तपोवन में मेधावी की कन्या ने बाद में क्या किया? और किस मुनिश्रेष्ठ ने उसके साथ विवाह किया?
श्रीनारायण बोले, 'अपने पिता को स्मरण करते-करते और बराबर शोक करते-करते उस घर में कुछ काल उस कन्या का व्यतीत हुआ। यूथ से भ्रष्ट हुई हरिणी की तरह घबड़ाई, शून्य घर में रहनेवाली, दुःखरूप अग्नि से उठी हुई भाफ द्वारा बहते हुए अश्रुनेत्र वाली, जलते हुए हृत् कमल वाली, दुःख से प्रतिक्षण गरम श्वास लेनेवाली, अतिदीना, घिरी हुई सर्पिणी की तरह अपने घर में संरुद्ध, अपने दुःख को सोचती और दुःख से मुक्त होने के उपाय को न देखती हुई उस कृशोदरी को उसके शुभ भविष्य की प्रेरणा से सान्त्वना देने के लिए उस वन में अपनी इच्छा से ही परक्रोधी, 'जिनको देखने से ही इन्द्र भयभीत होते हैं, 'ऐसे, जटा से व्याप्त, साक्षात् शंकर के समान भगवान् दुर्वासा ऋषि आये।
हे नारद! भगवान् कृष्ण ने राजा युधिष्ठिर से कहा कि हे राजेन्द्र! वह दुर्वासा आये जिसको कि आपकी माता कुन्ती ने बालापन में प्रसन्न किया था। तब उन सुपूजित महर्षि ने देवताओं को आकर्षण करने वाली विद्या उन्हें दी और हे भूपाल! जिन्होंने सब देवताओं से नमस्कार किए जाने वाले मुझको भी रुक्मिणी के साथ रथ में बैलों की जगह जोता।
दुर्वासा को बैठाकर रथ खींचते हुए जब हम दोनों मार्ग चलने लगे तब चलते-चलते मार्ग में अति तीव्र प्यास से सूख गये थे तालु और ओष्ठ जिस रुक्मिणी के ऐसी जल चाहने वाली रुक्मिणी ने जब मुझे सूचित किया तब कन्धे पर रथ की जोत को रखे हुए चलते-चलते ही पाँव के अग्रभाग से पृथ्वी को दबा कर रुक्मिणी के प्रेम के वशीभूत मैंने भोगवती नाम की नदी को उत्पन्न किया। तब वही भोगवती ऊपर से बहने लगी। अनन्तर उसी के जल से, हे महाराज! रुक्मिणी की प्यास को मैंने बुझाया। इस प्रकार रुक्मिणी की प्यास का बुझना देख उसी क्षण अग्नि की तरह दुर्वासा क्रोध से जलने लगे और प्रलय की अग्नि के समान उठकर दुर्वासा ने शाप दिया। बोले, 'बड़ा आश्चर्य है, हे श्रीकृष्ण! रुक्मिणी तुमको सदा अत्यन्त प्रिय है, अतः स्त्री के प्रेम से युक्त तुमने मेरी अवज्ञा कर अपना महत्व दिखलाते हुए इस प्रकार से उसे पानी पिलाया। अतः तुम दोनों का वियोग होगा, इस प्रकार उन्होंने शाप दिया था।
हे युधिष्ठिर! वही यह दुर्वासा मुनि हैं। साक्षात् रुद्र के अंश से उत्पन्न, दूसरे कालरुद्र की तरह, महर्षि अत्रि के उग्र तपरूप कल्पवृक्ष के दिव्य फल। पतिव्रताओं के सिर के रत्न, अनुसूया भगवती के गर्भ से उत्पन्न, अत्यन्त मेधायुक्त दुर्वासा नाम के ऋषि।
अनेक तीर्थों के जल से भींगी हुई जटा से भूषित सिर वाले, साक्षात् तपोमूर्ति दुर्वासा ऋषि को आते देखकर कन्या ने शोकसागर से निकल कर धैर्य से मुनि के चरणों में प्रार्थना की। प्रार्थना करने के बाद जैसे बाल्मीकि ऋषि को जानकी अपने आश्रम में लाई थीं वैसे ही यह भी दुर्वासा को अपने घर में लाकर अर्ध्य, पाद्य और विविध प्रकार के जंगली फलों और पुष्पों से स्वागत के लिए आज्ञा लेकर आदरपूर्वक पूजन कर तदनन्तर हे राजन्! यह बाला बोली।
कन्या बोली, 'हे महाभाग! हे अत्रि कुल के सूर्य! आपको प्रणाम है। हे साधो! मेरी अभाग्या के घर में आज आपका शुभागमन कैसे हुआ? हे मुने! आपके आगमन से आज मेरा भाग्योदय हुआ है अथवा मेरे पिता के पुण्य के प्रवाह से प्रेरित मुझे सान्त्वना देने के लिये ही आप मुनिसत्तम आये हैं। आप जैसे महात्माओं के पाँव की धूल जो है वह तीर्थरूप है उस धूल का स्पर्श करने वाली मैं अपना जन्म आज सफल कर सकी हूँ, आज मेरा व्रत भी सफल है। आप जैसे पुण्यात्मा के जो मुझे आज दर्शन हुए। अतः आज मेरा उत्पन्न होना और मेरा पुण्य सफल है।'
ऐसा कहकर वह कन्या दुर्वासा के सामने चुपचाप खड़ी हो गयी। तब भगवान् शंकर के अंश से उत्पन्न दुर्वासा मुनि मन्द हास्य युक्त बोले।
दुर्वासा बोले, 'हे द्विजसुते! तू बड़ी अच्छी है तूने अपने पिता के कुल को तार दिया। यह मेधावी ऋषि के तप का फल है। जो उन्हें तेरी ऐसी कन्या उत्पन्न हुई। तेरी धर्म में तत्परता जान कैलास से मैं यहाँ आया और तेरे घर आकर तेरे द्वारा मेरा पूजन हुआ।
हे वरारोहे! मैं शीघ्र ही बदरिकाश्रम में मुनीश्वर सनातन, नारायण, देव के दर्शन के लिये जाऊँगा जो प्राणियों के हित के लिए अत्यन्त उग्र तप कर रहे हैं।'
कन्या बोली, 'हे ऋषे! आपके दर्शन से ही मेरा शोकसमुद्र सूख गया। अब इसके बाद मेरा भविष्य उज्ज्वल है; क्योंकि आपने मुझे सान्त्वना दी, हे मुने! मेरी उस प्रादुर्भूत बड़ी भारी ज्वाला युक्त दुःख रूप अग्नि को क्या आप नहीं जानते हैं? हे दयासिन्धो! हे शंकर! उस दुःखाग्नि को शान्त कीजिये। मेरे विचार से हर्ष का कारण मुझे कुछ भी दिखलाई नहीं देता। न मुझे माता है, न पिता, न तो भाई है, जो धैर्य प्रदान करता, अतः दुःख समुद्र से पीड़ित मैं कैसे जीवित रह सकती हूँ?
जिस-जिस दिशा में मैं देखती हूँ वह-वह दिशा मुझे शून्य ही प्रतीत होती है, इसलिये हे तपोनिधे! मेरे दुःख का निस्तार आप शीघ्र करें। मेरे साथ विवाह करने के लिए कोई भी नहीं तैयार होता है। इस समय मेरा विवाह न हुआ तो मैं फिर वृषली शूद्रा हो जाऊँगी यह मुझे बड़ा भय है। इसी भय से न मुझे निद्रा आती है और न भोजन में मेरी रुचि होती है, हे ब्रह्मन्! अब मैं शीघ्र ही मरने वाली हूँ, यह मेरा इस समय निश्चय है।'
ऐसा कहकर आँसू बहाती हुई कन्या दुर्वासा के सामने चुप हो गयी तब दुर्वासा कन्या का दुःख दूर करने का उपाय सोचने लगे।
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार मुनि कन्या के वचन सुनकर और इसका अभिप्राय समझ कर बड़े क्रोधी मुनिराज दुर्वासा ने उस कन्या का कुछ हित विचार पूर्ण कृपा से उसे देखकर सारभूत उपाय बतलाया।
इति श्रीबृहन्नारदीये पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये नवमोऽध्यायः ॥९॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 11 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 11)
नारदजी बोले - सब मुनियों को भी जो दुष्कर कर्म है ऐसा बड़ा भारी तप जो इस कुमारी ने किया वह हे महामुने! हमें सुनाइये।श्रीनारायण बोले - अनन्तर ऋषि-कन्या ने भगवान् शिव, शान्त, पंचमुख, सनातन महादेव को चिन्तन करके परम दारुण तप आरम्भ किया। सर्पों का आभूषण पहिने, देव, नन्दी-भृंगी आदि गणों से सेवित, चौबीस तत्त्वों और तीनों गुणों से युक्त, अष्ट महासिद्धियों तथा प्रकृति और पुरुष से युक्त, अर्धचन्द्र से सुशोभित मस्तकवाले, जटा-जूट से विराजित भगवान् के प्रीत्यर्थ उस बाला ने परम तप आरम्भ किया। ग्रीष्म ऋतु के सूर्य होने पर पंचाग्नि के बीच में बैठकर, हेमन्त और शिशिर ऋतुओं में ठण्डे जल में बैठकर, खुले हुए मुखवाली जल में खिले हुए कमल की तरह शोभित होने लगी। सिर के नीचे फैली हुई काली और नीली अलकों से ढँकी हुई वह जल में ऐसी मालूम होने लगी जैसे कीचड़ की लता सेवारों के समूह से घिरी हुई हो। शीत के कारण नासिका से निकलती हुई शोभित धूम्राशि इस तरह दिखाई देने लगी जैसे कमल से मकरन्द पार करके भ्रमरपंक्ति जा रही हो। वर्षाकाल में आसन से युक्त चौतरे पर बिना छाया के सोती थी और वह सुन्दर अंगवाली प्रातः-सायं धूमपान करके रहती थी। उस कन्या के इस प्रकार के कठिन तप को सुन कर इन्द्र बहुत चिन्तित हो गये।
सब देवताओं से दुधुर्षा और ऋषियों से स्पृहणीया। उस ऋषि-कन्या के तप में लगे रहने पर हे नृपनन्दन! हे क्षत्रिय भूषण! नौ हजार वर्ष व्यतीत हो गये। उस बाला के तप से भगवान् शंकर ने प्रसन्न होकर उसे अपना इन्द्रियातीत निज स्वरूप दिखलाया। भगवान् शंकर को देखकर देह में जैसे प्राण आ जाय वैसे सहसा खड़ी हो गई और तप से दुर्बल होने पर भी वह बाला उस समय हृष्टपुष्ट हो गयी। बहुत वायु और घाम से क्लेश पाई हुई वह शंकर को बहुत अच्छी लगी और उस कन्या ने झुककर पार्वतीपति शंकरजी को प्रणाम किया। उन विश्वोवन्दित भगवान् का मानसिक उपचारों से पूजन करके और भक्तियुक्त चित्त से जगत् के नाथ की स्तुति करने लगी।
कन्या बोली - हे पार्वतीप्रिय! हे प्राणनाथ! हे प्रभो! हे भर्ग! हे भूतेश! हे गौरीश! हे शम्भो! हे सोमसूर्याग्निनेत्र! हे तमः! हे मेरे आधार! मुण्डास्थिमालिन्! आपको प्रणाम है।
अनेक तापों से व्याप्त है अंगों में पीड़ा जिसके ऐसा, तथा परम घोर संसाररूपी समुद्र में डूबा हुआ, दुष्ट सर्पों तथा काल के तीक्ष्ण दांतों से डँसा हुआ मनुष्य भी यदि आपकी शरण में आ जाए तो मुक्त हो जाता है।
हे विभो! जिन आपने बाणासुर को अपनाया और मरी हुई अलर्क राजा की पत्नी को जिलाया ऐसे आप हे दयानाथ! भूतेश! चण्डीिश! भव्य! भवत्राण! मृत्युञ्जय! प्राणनाथ! हे दक्षप्रजापति के मुख को ध्वंस करने वाले! हे समस्त शत्रुओं के नाशक! हे सदा भक्तों को संसार से छुड़ाने वाले! हे जन्म के हर्ता, हे प्रथम सृष्टि के कर्ता! हे प्राणनाथ! हे पाप के नाश करने वाले! आप को नमस्कार है। अपने सेवकों की रक्षा कीजिये।
हे नृप! बड़ी भाग्यवती मेधावी की तपस्विनी कन्या इस प्रकार मन से और वाणी से शंकर की स्तुति करके चुप हो गयी।
श्रीकृष्ण बोले - कन्या द्वारा की हुई स्तुति सुनकर और उसके किये हुए उग्रतप से प्रसन्न मुखकमल
सदाशिव कन्या से बोले - हे तपस्विनि! तेरा कल्याण हो, तेरे मन में जो अभीष्ट हो वह वर तू माँग, हे महाभागे! मैं प्रसन्न हूँ, तू खेद मत कर।
ऐसा भगवान् शंकर का वचन सुन वह कुमारी अत्यन्त आनन्द को प्राप्त हुई और हे राजन्! प्रसन्न हुए सदाशिव से बोली।
कन्या बोली - हे दीनानाथ! हे दयासिन्धो! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो हे प्रभो! मेरी कामना पूर्ण करने में देर न करें। हे महादेव! मुझको पति दीजिये, पति दीजिये, पति दीजिये, मैं पति चाहती हूँ, पति दीजिये, मैंने हृदय में और कुछ नहीं सोचा है।
वह ऋषिकन्या इस प्रकार महादेव से कह कर चुप हो गयी तब यह सुन कर महादेव जी उससे बोले।
शिव बोले - हे मुनिकन्यके! तूने जैसा अपने मुख से कहा है वैसा ही होगा क्योंकि तूने पाँच बार पति माँगा है, अतः हे सुन्दरी! तेरे पाँच पति होंगे और वे पाँचों वीर, सर्वधर्मवेत्ता, सज्जन, सत्यपराक्रमी, यज्ञ करनेवाले, अपने गुणों से प्रसिद्ध, सत्य प्रसिद्ध जितेन्द्रिय, तेरा मुख देखने वाले, सभी क्षत्रीय और गुणवान् होंगे।'
श्रीकृष्ण बोले - न तो अधिक प्रिय, न तो अधिक अप्रिय ऐसे महादेव के वचन को सुनकर, बोलने में चतुरा कन्या झुककर बोली।
बाला बोली - हे गिरिजाकान्त! सदाशिव! संसार में एक स्त्री का एक ही पति होता है, अतः पाँच पति का वर देकर, लोक में मेरी हँसी न कराइये। एक स्त्री पाँच पतिवाली न देखी गयी है और न सुनी गयी है। हाँ, एक पुरुष की पाँच स्त्रियाँ तो हो सकती हैं।
हे शम्भो हे कृपानिधे! आपकी सेविका मैं पाँच पतियों वाली कैसे हो सकती हूँ आपको मेरे लिये ऐसा कहना उचित नहीं है। आपकी सेविका होने के कारण जो लज्जा मुझे हो रही है, वह आप अपने को ही समझिये। कन्या का यह वचन सुनकर शंकरजी पुनः उससे बोले।
शंकरजी बोले - हे भीरु! इस जन्म में तुझे पति सुख नहीं मिलेगा, दूसरे जन्म में जब तू तपोबल से बिना योनि के उत्पन्न होगी। तब पति सुख को भोग कर अनन्तर परमपद को प्राप्त होगी क्योंकि मेरी प्रिय मूर्ति दुर्वासा का तूने पहले अपमान किया है।
हे सुभ्रु! वह दुर्वासा यदि क्रोध करें तो तीनों भुवनों को जला सकते हैं सो
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 12 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 12)
नारदजी बोले, 'जब भगवान् शंकर चले गये तब हे प्रभो! उस बाला ने शोककर क्या किया! सो मुझ विनीत को धर्मसिद्धि के लिए कहिये।
श्रीनारायण बोले, 'इसी प्रकार राजा युधिष्ठिर ने भगवान् कृष्ण से पूछा था सो भगवान् ने राजा के प्रति जो कहा सो हम तुमसे कहते हैं सुनो।
श्रीकृष्ण बोले, 'हे राजन! इस प्रकार जब शिवजी चले गये तब वह बाला प्रभावित हो गयी और लम्बे श्वास लेती हुई, बड़ी डरी और वह कृशोदरी अश्रुपातपूर्वक रोने लगी। हृदयाग्नि से उठी हुई ज्वाला से जलते हुए अंगवाली वह तपस्विनी कन्या वनाग्नि से जले हुए पत्ते वाली लता की तरह हो गयी।
दुःख और ईर्ष्या को प्राप्त उस कन्या का बहुत समय व्यतीत हो गया। जिस प्रकार चूहे के बिल में घुसकर आक्रमण करके सर्प उसे वश में कर लेता है उसी प्रकार उपर्युक्त शोचनीय अवस्था को प्राप्त उस तपस्विनी बाला पर उस प्रभु काल ने आक्रमण कर उसे वश में कर लिया। वर्षा ऋतु में मेघ से घिरे हुए आकाश में बिजली चमक कर जैसे नष्ट हो जाती है उसी प्रकार तपस्या से जले हुए पापवाली वह कन्या अपने आश्रम में मर गयी।
उसी समय धर्मिष्ठ यज्ञसेन नामक राजा ने बड़ी सामग्रियों से युक्त उत्तम यज्ञ किया। उस यज्ञकुण्ड से सुवर्ण के समान कान्ति वाली एक लड़की उत्पन्न हुई । वही कुमारी द्रुपदराज की कन्या के नाम से संसार में विख्यात हुई। पहले जो मेधावी ऋषि की कन्या थी वही सब लोकों में द्रौपदी नाम से प्रसिद्ध हुई । उसी को स्वयंवर में मछली को वेधकर भीष्म कर्ण आदि बहुत से राजाओं को तृण के समान कर क्षुभित रजमण्डदल में अर्जुन ने पांचाली को पाया।
हे मुने! वही द्रौपदी दुष्ट दुःशासन द्वारा बाल पकड़ कर खींची गयी और उसे हृदय विदीर्ण करने वाले वचन सुनाये गये। पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण मैंने भी उसकी उपेक्षा की। जब वह मेरे में स्नेह करके मेरा नाम बराबर लेने लगी।
हे दामोदर! हे दयासिन्धो! हे कृष्ण! हे जगत्पते! हे नाथ रमानाथ! हे केशव! हे क्लेशनाशन! मेरे माता, पिता, भ्रातृवर्ग, सहेलियें, बहिन, भाञ्जे, बन्धु, इष्ट, पति आदि कोई भी नहीं है। हे हृषीकेश! मेरे तो आप ही सब कुछ हैं। हे गोविन्द! हे गोपिकानाथ! दीनबन्धो! दयानिधे! दुःशासन से आक्रमण की गई मुझे क्या आप नहीं जानते।
यद्यपि पहली पुकार में मैंने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया था, पर जब दुःशासन से पराभूत होकर उसने मेरा पुनः स्मरण किया, तब गरुड़ पर चढ़ शीघ्र वहाँ पहुँच कर मैंने हे राजन्! उसे बहुत से वस्त्रों से परिपूर्ण कर दिया।
सदा मेरे में स्नेह करने वाली, मैं ही हूँ प्राण जिसके ऐसी, सदा मेरे भजन में परायण, मेरी अत्यन्त प्रिया, सती, सखी, मुझको प्राणों के समान होने पर भी पुरुषोत्तम की अवहेलना करने के कारण उसकी उपेक्षा करनी पड़ी। पुरुषोत्तम का तिरस्कार करने वाले का मैं पतन कर देता हूँ।
यह पुरुषोत्तम मुनियों और देवताओं से भी सेव्य है, फिर समस्त कामनाओं को देने वाला यह पुरुषोत्तम मनुष्यों द्वारा तो सेवनीय है ही। अतः आगामी पुरुषोत्तम की आराधना करो। चौदह वर्ष के सम्पूर्ण होने पर तुम्हारा कल्याण होगा।
हे पाण्डुनन्दन! जिन पुरुषों ने द्रौपदी के बालों को खींचते हुए देखा है, हे महाराज! उनकी स्त्रियों की अलकों को मैं क्रोध से काटूँगा। दुर्योधन आदि राजाओं को यमराज के भवन को पहुँचाऊँगा, बाद तुम समस्त शत्रुओं का नाश कर राजा होंगे। न मेरे को लक्ष्मी प्रिय, न मेरे को बलभद्र जी प्रिय और न वैसे मेरे को देवी देवकी, न प्रद्युम्न, न सात्यकि प्रिय हैं, जैसे मेरे को भक्त प्रिय हैं वैसा कोई प्रिय नहीं है। जिसने मेरे भक्तों को पीड़ित किया उससे मैं सदा पीड़ित रहता हूँ।
हे पाण्डव! उसके समान मेरा अन्य कोई शत्रु नहीं है, उसके अपराध का फल देने वाला यमराज है क्योंकि वह दुष्ट दण्ड देने के लिए भी मेरे से देखने के योग्य नहीं है।
श्रीनारायण बोले, 'श्रीकृष्ण ने उन पाण्डुपुत्र युधिष्ठिरादिकों को और द्रौपदी को समझा कर द्वारका जाने की इच्छा से कहा, हे राजन्! वियोग से व्याकुल द्वारका पुरी को आज जाऊँगा जहाँ पर महाभाग वसुदेव जी, हमारे बड़े भाई बलदेवजी, हमारी माता देवी देवकी तथा गद, साम्ब आदि और आहुक आदि यादव, रुक्मिणी आदि जो स्त्रियाँ हैं, दर्शन की उत्कण्ठा वाले वे सब हमारे आगमन की कामना से टकटकी लगाकर हमारा ही चिन्तन करते होंगे।
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार कहते हुए देवेश श्रीकृष्ण के गमन को जानकर पाण्डु-पुत्र किस प्रकार गद्गद कण्ठ से बोले, जिस प्रकार जल में रहने वालों का जीवन जल है उसी तरह हम लोगों के जीवन तो आप ही हैं। हे जनार्दन! थोड़े ही दिनों के बाद फिर दर्शन हों, पाण्डवों के नाथ हरि हैं और तीनों लोको में दूसरा कोई नहीं है, इस प्रकार सामने ही सब लोग कहते हैं अतः हम लोगों की हमेशा रक्षा करें।
हे जगदीश्वर! हम लोग आप के हैं, भूलियेगा नहीं। हम लोगों के चित्तरूपी भ्रमरों का जीवन आपका चरण कमल ही है। आप ही हमारे आधार हैं, इसलिए बारम्बार हम सब प्रार्थना करते हैं।
इन पाण्डुपुत्रों के निरन्तर इस तरह कहते रहने पर श्रीकृष्णचन्द्र प्रेमानन्द में मग्न होकर धीरे-धीरे रथ पर सवार होकर पीछे चलने वाले पाण्डुपुत्रों को लौटाकर द्वारका पुरी को गये।
श्रीनारायण बोले, 'इसके बाद श्रीद्वारकानाथ श्रीकृष्णचन्द्र के द्वारका पुरी जाने पर, राजा युधिष्ठिर अपने छोटे भाइयों के साथ तप करते हुए तीर्थों मे भ्रमण को गये।
हे ब्रह्मन्! नारद! भगवान् के प्रिय पुरुषोत्तम मास में मन लगाकर और श्रीकृष्णचन्द्र के वचनों का स्मरण करते हुए, अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से राजा युधिष्ठिर बोले, 'अहो! पुरुषोत्तम मास में होने वाले अत्यन्त उग्र पुरुषोत्तम का माहात्म्य सुना है, पुरुषोत्तम भगवान् के पूजन किये बिना सुख किस तरह मिलेगा? इस भारतवर्ष में वह धन्य है, वह पूज्य है, वही श्रेष्ठ है, जो अनेक प्रकार के नियमों से पुरुषोत्तम भगवान् का पूजनार्चन किया करता है। इस तरह समस्त तीर्थों में भ्रमण करते हुए पाण्डुपुत्र पुरुषोत्तम मास के आने पर विधिपूर्वक व्रत करने लगे।
हे मुने! नारद! व्रत के अन्त में चौदह वर्ष के पूर्ण होने पर श्रीकृष्ण भगवान् की कृपा से अतुल निष्कण्टक राज्य को प्राप्त किये।
पूर्वकाल में सूर्यवंश में होने वाला दृढ़धन्वा नाम का राजा पुरुषोत्तम मास के सेवन से बड़ी लक्ष्मी पुत्र पौत्र का सुख और अनेक प्रकार के भोगों को भोगकर, योगियों को भी दुर्लभ जो भगवान् का वैकुण्ठ लोक है वहाँ गया। हे मुनिश्रेष्ठ! नारद! इस पुरुषोत्तम मास के अतुल माहात्य को करोड़ों कल्प समय मिलने पर भी मैं कहने को समर्थ नहीं हूँ।
सूतजी बोले, 'हे विप्र लोग! पुरुषोत्तम मास का माहात्म्य कृष्णद्वैपायन (व्यास जी) से मैंने सुना है तथापि कहने को मैं समर्थ नहीं हूँ। इस पुरुषोत्तम मास के अखिल माहात्म्य को स्वयं नारायण जानते हैं या साक्षात् वैकुण्ठवासी हरि भगवान् जानते हैं। परन्तु ब्रह्मादि देवताओं से नमस्कार किये जाने वाले हैं चरणपीठ जिनके, ऐसे गोलोकनाथ श्रीकृष्णचन्द्र भी अपनाये हुए पुरुषोत्तम मास का सम्पूर्ण माहात्म्य नहीं जानते हैं तो मनुष्य कहाँ से जान सकता है?
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 13 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 13)
ऋषि लोग बोले, 'हे सूत! हे महाभाग! हे सूत! हे बोलने वालों में श्रेष्ठ! पुरुषोत्तम के सेवन से राजा दृढ़धन्वा शोभन राज्य, पुत्र आदि तथा पतिव्रता स्त्री को किस तरह प्राप्त किया और योगियों को भी दुर्लभ भगवान् के लोक को किस तरह प्राप्त हुआ? हे तात! आपके मुखकमल से बार-बार कथासार सुनने वाले हम लोगों को अमृत-पान करने वालों के समान कथामृत-पान से तृप्ति नहीं होती है। इस कारण से इस पुरातन इतिहास को विस्तार पूर्वक कहिये। हमारे भाग्य के बल से ही ब्रह्मा ने आपको दिखलाया है।
सूतजी बोले, 'हे विप्र लोग! सनातन मुनि नारायण ने इस पुरातन इतिहास को नारद जी के प्रति कहा है वही इतिहास इस समय मैं आप लोगों से कहता हूँ। मैंने जैसा गुरु के मुख से राजा दृढ़धन्वा का पापनाशक चरित्र पढ़ा है उसको सब मुनि श्रवण करें।'
श्रीनारायण बोले, 'हे ब्रह्मन्! नारद! सुनिये। मैं पवित्र करने वाली गंगा के समान राजा दृढ़धन्वा की सुन्दर तथा प्राचीन कथा कहूँगा।
हैहय देश का रक्षक, श्रीमान् बुद्धिमान् तथा सत्यपराक्रमी चित्रधर्मा नाम का राजा था। उसको दृढ़धन्वा नाम से प्रसिद्ध अति तेजस्वी, सब गुणों से युक्त, सत्य बोलने वाला, धर्मात्मा और पवित्र आचरण वाला पुत्र हुआ। कान तक लंबे नेत्र वाला, चौड़ी छाती वाला, बड़ी भुजा वाला, महातेजस्वी वह राजा दृढ़धन्वा प्रशस्त गुण समूहों के साथ-साथ बढ़ता गया।
वह चतुर राजा दृढ़धन्वा प्रसन्नता के साथ गुरु के मुख से एक बार कहने मात्र से पूर्व में पढ़े हुये के समान व्याकरण आदि छः अंगों के साथ चार वेदों का अध्ययन कर गुरु को दक्षिणा देकर और विधि पूर्वक उनकी पूजा कर बुद्धिमान् राजा गुरु की आज्ञा से पिता चित्रधर्मा के पुर को गया।
अपने नगर में वास करने वाले प्रजावर्ग के नेत्रों को आनन्दित करता हुआ। जिस पुत्र को देख कर राजा चित्रधर्मा भी अत्यन्त हर्ष को प्राप्त हुआ। पुत्र जवान हो, सम्पूर्ण धर्म को जानने वाला हो और प्रजापालन में समर्थ हो, इससे बढ़ कर सारशून्य इस संसार में और क्या है? अर्थात् कुछ नहीं है।
अब मैं दो भुजावाले, मुरली (वंशी) को धारण करने वाले, प्रसन्न मुख वाले, शान्त तथा भक्तों को अभय देनेवाले श्रीकृष्णचन्द्र की आराधना करता हूँ।
जिस तरह ध्रुव, अम्बरीष, शर्धाति, ययाति प्रमुख राजा और शिवि, रन्तिदेव, शशबिन्दु, भगीरथ, भीष्म, विदुर, दुष्यन्त और भरत, पृथु, उत्तानपाद, प्रह्लाद, विभीषण। ये सब राजा तथा और अन्य राजा लोग भी अनेकों लोगों को त्याग कर, इस अनित्य शरीर से पुरुषोत्तम भगवान् का आराधन कर, नित्य (सदा रहनेवाले) विष्णुपद को चले गये। उसी तरह स्त्री, मकान पुत्र आदि में स्नेहमय बन्धन को तोड़कर वन में जाकर हरि का सेवन करना हमारा भी कर्तव्य है।
ऐसा मन में निश्चय कर, समर्थ राजा दृढ़धन्वा को राज्य का भार देकर स्वयं विरक्त हो, शीघ्र पुलह ऋषि के आश्रम को चला गया। वहाँ जाकर सम्पूर्ण कामनाओं से निस्पृह हो और भोजन त्याग कर हर समय मन से श्रीकृष्णचन्द्र का स्मरण करता हुआ तप करने लगा। कुछ समय तक तप करके वह राजा चित्रवर्मा हरि भगवान् के परम धाम को चला गया। राजा दृढ़धन्वा ने भी अपने पिता की वैष्णवी गति को सुना।
उस समय पिता के परमधाम गमन से हर्ष और वियोग होने से शोक-युक्त राजा दृढ़धन्वा पितृ-भक्ति से विद्वानों के वचन में स्थित होकर, पारलौकिक क्रिया को करने लगा।
नीतिशास्त्र में विशारद (चतुर) राजा दृढ़धन्वा अत्यन्त शोभित पवित्र पुष्करावर्तक नगर में राज्य करने लगा। अच्छे स्वभाववाली विदर्भराज की कन्या उसकी स्त्री गुणसुन्दरी नाम की थी, पृथ्वी पर रूप में उसके समान दूसरी स्त्री नहीं थी। उस गुणसुन्दरी ने सुन्दर, चतुर, शुभ आचरण वाले चार पुत्रों को उत्पन्न किया और सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त चारुमती नामक कन्या को उत्पन्न किया। चित्रवाक्, चित्रवाह, मणिमान् और चित्रकुण्डल नाम वाले वे सब बड़े मानी, शूर अपने-अपने नाम से पृथक् विख्यात होने लगे।
राजा दृढ़धन्वा सर्वगुणी, प्रसिद्ध, शान्त, दान्त, दृढ़प्रतिज्ञ, रूपवान्, गुणवान्, वीर, श्रीमान्, स्वभाव से सुन्दर चार वेद और व्याकरण आदि ६ अंगों को जानने वाला, वाग्मी (वाक्चतुर), धनुर्विद्या में निपुण, अरिषड्वर्ग (काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद और मात्सर्य) को जीतने वाला, और शत्रु-समुदाय का नाश करने वाला, क्षमा में पृथिवी के समान, गम्भीरता में समुद्र के समान, समता (सम व्यवहार) में पितामह (ब्रह्मा) के समान, प्रसन्नता में शंकर के समान, एकपत्नी व्रत (एक ही स्त्री से विवाह करने का व्रत) को करने वाले दूसरे रामचन्द्र के समान, अत्यन्त उग्र पराक्रमशाली दूसरे कार्तवीर्य (सहस्रार्जुन) के समान था।
नारायण बोले, 'एक समय रात्रि में शयन किये हुए उस राजा दृढ़धन्वा को चिन्ता हुई कि अहो! यह वैभव (सम्पत्ति) किस महान् पुण्य के कारण हमें प्राप्त हुआ है। न तो मैंने तप किया, न तो दान दिया, न तो कहीं पर कुछ हवन ही किया। मैं इस भाग्योदय का कारण किससे पूछूँ ?
इस प्रकार चिन्ता करते ही राजा दृढ़धन्वा की रात्रि बीत गई। प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में उठकर विधिपूर्वक स्नान कर उदय को प्राप्त सूर्यनारायण का उपस्थान कर, भगवान् की कला की पूजा कर अर्थात् देवमन्दिरों में जाकर देवता का पूजन कर, ब्राह्मणों को दान देकर तथा नमस्कार करके घोड़े पर सवार हो गया। उसके बाद शिकार खेलने की इच्छा से शीघ्र वन को गया वहाँ पर बहुत से मृग, वराह (सूअर), सिंह और गवयों (चँवरी गाय) का शिकार किया।
उसी समय राजा दृढ़धन्वा के बाण से घायल होकर कोई मृग बाण सहित शीघ्र एक वन से दूसरे वन को चला गया। रुधिर गिरे हुए मार्ग से राजा भी मृग के पीछे गया। परन्तु मृग कहीं झाड़ी में छिप गया और राजा उस वन में उसे खोजता ही रह गया।
पिपासा (प्यास) से व्याकुल उस राजा ने समुद्र के समान एक तालाब को देखा वहाँ जल्दी से जाकर और पानी पीकर तीर (किनारे) पर चला आया। वहाँ घनी छाया वाले एक विशाल बट वृक्ष को देखा। उस वृक्ष की जटा में घोड़े को बाँधकर राजा वहीं बैठ गया। उसी समय वहाँ पर कोई एक परम सुन्दर सुग्गा राजा को मोहित करने वाली तुलना रहित मनुष्य वाणी को बोलता हुआ आया। केवल राजा को बैठे देख उसको सम्बोधित करता हुआ एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ने लगा कि, इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तू तत्त्व (आत्मा) का चिन्तन नहीं करता है तो इस संसार के पार को कैसे जायगा?
बार-बार इस श्लोक को राजा दृढ़धन्वा के सामने पढ़ने लगा। राजा उसके वचन को सुनकर प्रसन्न हुआ और उसपर मोहित हो गया, कि इस शुक पक्षी ने दुःख से जानने योग्य, सार भरे हुए नारियल फल के समान अगम्य एक ही श्लोक को बार-बार पढ़ते हुए क्या कहा?
क्या यह कृष्णद्वैपायन (वेदव्यास) के श्रेष्ठ पुत्र शुकदेवजी तो नहीं हैं? जो कि श्रीकृष्णचन्द्र के सेवक मुझको मूढ़ और संसार सागर में डूबा हुआ देखकर राजा परीक्षित के समान कृपा कर उद्धार करने की इच्छा से मेरे पास आये हैं? इस तरह चिन्ता करते हुए राजा दृढ़धन्वा की सेना समीप आ गई।
शुक पक्षी राजा को उपदेश देकर स्वयं अन्तर्धान (अलक्षित) हो गया। उस शुकपक्षी के वचन को स्मरण करता हुआ राजा अपने पुर में आकर बुलाने पर भी नहीं बोलता है और निद्रा रहित हो उसने भोजन को भी त्याग दिया था, तब एकान्त में उसकी रानी ने आकर राजा से पूछा।
गुणसुन्दरी बोली, 'हे पुरुषों में श्रेष्ठ! यह मन में मलिनता क्यों हुई? हे भूपाल! पृथिवी के रक्षक! उठिये उठिये। भोगों को भोगिये और वचन बोलिए।'
देवताओं से भी दुःख से जानने योग्य उस शुक पक्षी के सत्य वचन का स्मरण करता हुआ रानी गुणसुन्दरी के प्रार्थना करने पर भी राजा दृढ़धन्वा कुछ नहीं बोला। पति के दुःख से अत्यन्त पीड़ित वह रानी भी दीर्घ स्वाँस लेकर अपने स्वामी की चिन्ता के उत्कट कारण को नहीं जान सकी।
इस प्रकार चिन्ता में मग्न राजा का कितना ही समय बीत गया, परन्तु सन्देह-सागर से पार करने वाला कोई भी कारण वह देख न सकी।
नारदजी बोले, 'हे मुने! इस तरह चिन्ता को करते हुए पृथिवीपति राजा दृढ़धन्वा का क्या हुआ सो आप कहें। क्योंकि हे मुने! निर्मल वैष्णव चरित्र थोड़ा भी यदि सुना जाय तो पापों का नाश हो जाता है।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 14 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 14)
श्रीनारायणजी बोले, 'इसके बाद चिन्ता से आतुर राजा दृढ़धन्वा के घर बाल्मीकि मुनि आये जिन्होंने परम अद्भुत तथा सुन्दर रामचन्द्रजी का चरित्र वर्णन किया है। राजा दृढ़धन्वा ने दूर से ही बाल्मीकि मुनि को आते हुए देखकर घबड़ाहट के साथ जल्दी से उठकर भक्तियुक्त हो उनके चरणों में दण्डवत् प्रणाम किया। भलीभाँति पूजा कर उत्तम आसन पर ऋषि को बैठाकर उनके चरणों को गोद में लेकर दोनों हाथों से धोया, और उस चरणोदक को बड़े हर्ष के साथ शिर से धारण कर शुक पक्षी की बात स्मरण करता हुआ राजा दृढ़धन्वा ने मधुर वचन से यों कहा।
दृढ़धन्वा बोला, 'हे भगवन्! इस समय मैं कृतकृत्य हूँ। भाग्यवान हूँ। मेरा जन्म सफल हुआ। हे प्रभो! आज मेरा मनोरथ पूर्ण हुआ। आज आप के प्रत्यक्ष दर्शन से शास्त्रादिकों के यथार्थ अर्थ का ज्ञान सफल हुआ। हे जगत् के पावन करने वालों के पावन करने वाले! आज मैं अपने भाग्य का क्या वर्णन करूँ?'
श्रीनारायण बोले, 'इस तरह बाल्मीकि मुनि को कहकर वह राजा मौन हो गये, बाद बाल्मीकि मुनि उस राजा को विनययुक्त देखकर बड़े प्रसन्न हुए और जनता को आनंदित करते हुए बोले।
बाल्मीकि मुनि बोले, 'हे नृपश्रेष्ठ! ठीक है, ठीक है, तुममें उक्त प्रकार की सब बातों का होना सम्भव है। हे राजन्! तुम चिंता से आतुर क्यों हो? सो सब मन की बात कहो। ऐसा मालूम पड़ता है कि तुम्हारी कुछ कहने की इच्छा है, इसलिये हे महामते! उसे कहो।
राजा दृढ़धन्वा बोला, 'आपके चरणकमल की कृपा से हमेशा सुख है। परन्तु हे विद्वन्! हमारे हृदय में एक बड़ा सन्देह है। वन में होने वाले शुक पक्षी के मुख से निकले हुए बाण के समान उस वचन को दूर करें। किसी समय मैं शिकार खेलने के लिये गहन वन में निकल गया। वहाँ भ्रमण करता हुआ एक तालाब देखा, उसका जल पीया, बाद में थकावट दूर करने के लिये एक बड़े वटवृक्ष के नीचे बैठ गया। अत्यन्त घनी तथा सुन्दर छायावाले और मन एवं नेत्र को आनन्द देनेवाले उस वृक्ष पर बैठे हुए सुन्दर शुक पक्षी को देखा। जब उस शुक पक्षी पर हमारी दृष्टि गई तब उसने हमारे सम्मुख होकर एक श्लोक पढ़ा, कि इस पृथिवी पर विद्यमान अतुल सुख को देखकर तूँ तत्त्व (आत्मा) का चिंतन नहीं करता है तो इस संसार के पार कैसे जायेगा? मैं इस प्रकार शुक पक्षी के वचन को सुनकर विस्मित हो गया, हे ब्रह्मन्! मैं नहीं जानता कि उस शुक पक्षी ने क्या कहा?
इस हमारे हृदय के सन्देह को आप दूर करने के योग्य हैं। हमारा राज्य-सुख तथा सुन्दर चार पुत्र, सुन्दर पतिव्रता स्त्री, हाथी, घोड़ा, रथ सेना, हे ब्रह्मन्! ये सब अतुल समृद्धि इस समय हमें किस पुण्य से प्राप्त है? यह सब विचार कर संक्षेप में कहने के आप योग्य हैं।
राजा दृढ़धन्वा के वचन को बाल्मीकि मुनि सुनकर, प्राणायाम कर, एक मुहूर्त तक ध्यान मैं मग्न हो, हाथ में रखे हुये आँवला के फल के समान विश्वा संसार के भूत, भविष्यत् और जो वर्तमान विषयं हैं, उनको हृदय में समाधि के बल से जानकर और निश्चिय कर राजा से बोले।
बाल्मीकि मुनि बोले, 'हे राजाओं में श्रेष्ठ! अपने पूर्वजन्म का चरित्र तुम सुनो, हे राजेन्द्र! पूर्वजन्म में आप द्रविड़ देश में ताम्रपर्णी नदी के किनारे वास करने वाले सुदेव नामक ब्राह्मण थे। धार्मिक, सत्यवादी, जो मिल जाय। उतने ही में सन्तोष करने वाले, वेधाध्ययन में सम्पन्न, विष्णु भक्ति में परायण रहा करते थे। आपने अग्निहोत्र आदि यज्ञों के द्वारा भगवान् हरि को प्रसन्न किया। इस प्रकार रहते हुये तुम्हारी गुणवती स्त्री थी। वह गौतम ऋषि की सुन्दर कन्या गौतमी नाम से प्रसिद्ध शंकर की सेवा में तत्पर पार्वती के समान तुम्हारी प्रेम से सेवा करती थी।
गृहस्थाश्रम धर्म में धर्मपूर्वक वास करते बहुत समय बीत गया! परन्तु तुम्हें कोई सन्तान नहीं हुई। एक दिन अपने स्त्री से सेवित आसन पर बैठा हुआ दुःखित ब्राह्मण गद्गद स्वर से बोला, 'अयि सुन्दरि! संसार में पुत्र से बढ़ कर दूसरा सुख नहीं है और तप दान से उत्पन्न पुण्य दूसरे लोक में सुख देने वाला होता है। शुद्ध वंश में होने वाली सन्तान इस लोक में तथा परलोक में कल्याण करने वाली होती है, उस श्रेष्ठ पुत्र के न मिलने से मेरा जीवन निष्फल है। न तो मैंने पुत्र को प्यार किया और न वेद पढ़ने के लिए सोने से जगाया, न तो उसका विवाह किया, इसलिए मेरा जन्म व्यर्थ में चला गया।
अभी मेरी मृत्यु हो, मेरे को आयुष्य प्रिय नहीं है। इस प्रकार अपने प्रिय पति का वचन सुनकर स्त्री गौतमी खिन्न मन हुई। बाद धैर्य धारण करती हुई, प्रिय वचन बोलने में चतुर, प्रिय पति के प्रेम में मग्न वह स्त्री अपने पति को समझाने के लिये सुन्दर वचन बोली।
गौतमी बोली, 'हे प्राणेश्वर! अब इस तरह तुच्छ वचनों को न कहिये। आपके समान भगवद्भक्त विद्वान् लोग मोह को प्राप्त नहीं होते हैं। हे विभो! आप सत्यधर्म में तत्पर रहनेवाले हो, आपने स्वर्ग को जीत लिया है। हे सुव्रत! अर्थात् हे सुन्दर व्रत करने वाले! आप जैसे ज्ञानी को पुत्रों से सुख की प्राप्ति कैसी? अर्थात् ज्ञानी पुरुष पुत्रों से होने वाले सुख की इच्छा नहीं करते हैं।
हे ब्रह्मन्! पहले चित्रकेतु नामक राजा पुत्र-शोक से सन्तप्त हुआ तब नारद और अंगिरा ऋषि के आने पर पुत्र-शोक से मुक्त हो संसार से उद्धार को प्राप्त हुआ। इसी प्रकार राजा अंग वेन नामक दुष्ट पुत्र के कारण रात्रि के समय वन को चला गया। इसी तरह हे स्वामिन्! आपको भी सन्ताति दुःख देनेवाली होगी। फिर भी हे तपोधन! यदि आपको सत्-पुत्र की लालसा है तो प्रसन्नता से जगत् के नाथ, समस्त अर्थों के दाता, हरि भगवान् की आराधना करें। हे ब्रह्मन्! पहले सांख्याचार्य कर्दम ऋषि ने जिनकी आराधना कर पुत्र को प्राप्त किया जो कि पुत्र योगियों में श्रेष्ठ कपिल देव नाम से प्रसिद्ध हुआ।
ब्राह्मण श्रेष्ठ इस प्रकार अपनी धर्मपत्नी के वचन सुनकर तथा निश्चय कर उस अपनी गौतमी स्त्री के साथ ताम्रपर्णी नदी के तट पर गया। वहाँ जाकर उस पवित्र तीर्थ में स्नान कर अत्यन्त श्रेष्ठ तप करता भया। पाँच-पाँच दिन के बाद सूखे पत्ते तथा जल का आहार करता था। इस प्रकार तप करते उस तपोनिधि सुदेव ब्राह्मण को चार हजार वर्ष व्यतीत हो गये, हे ब्रह्मन्! उसके इस तपस्या से तीनों लोक काँप उठे। भक्तवत्सल भगवान् उस सुदेव ब्राह्मण के अत्यन्त उग्र तपस्या को देखकर जल्दी से गरुड़ पर सवार होकर प्रगट हुए।
श्रीनारायण बोले, 'नवीन मेघ के समान, जगत् की रक्षा करने में समर्थ चार भुजा वाले, प्रसन्नमुख मुरारि को देखकर सुदेव शर्मा ब्राह्मण हर्ष के साथ मुकुन्द भगवान् को साष्टांग प्रणाम करता हुआ बोला।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये चतुर्दशोऽध्याय ॥१४॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 15 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 15)
श्रीनारायण बोले, 'नारद! सुदेव शर्मा ब्राह्मण हाथ जोड़कर गद्गद स्वर से भक्तवत्सल श्रीकृष्णदेव की स्तुति करता हुआ बोला, 'हे देव! हे देवेश! हे त्रैलोक्य को अभय देनेवाले! हे प्रभो! आपको नमस्कार है। हे सर्वेश्वर! आपको नमस्कार है, मैं आपकी शरण आया हूँ, हे परमेश्वर! हे शरणागतवत्सल! मेरी रक्षा करो। हे जगत् के समस्त प्राणियों से नमस्कार किये जाने वाले! हे शरण में आये हुए लोगों के भय का नाश करने वाले! आपको नमस्कार है।
आप जय के स्वरूप हो, जय के देने वाले हो, जय के मालिक हो, जय के कारण हो, विश्व के आधार हो, विश्व के एक रक्षक हो, दिव्य हो, विश्वो के स्थान हो, फलों के बीज हो, फलों के आधार हो, विश्व में स्थित हो, विश्व के कारण के कारण हो। फलों के मूल हो, फलों के देनेवाले हो। तेजःस्वरूप हो, तेज के दाता हो, सब तेजस्वियों में श्रेष्ठ हो, कृष्ण (हृदयान्धकार के नाशक) हो, विष्णु (व्यापक) हो, वासुदेव (देवताओं के वासस्थान अथवा वसुदेव के पुत्र) हो, दीनवत्सल हो ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ।
हे जगत्प्रभो! आपकी स्तुति करने में ब्रह्मादि देवता भी समर्थ नहीं हैं। हे जनार्दन! मैं तो अल्पबुद्धि वाला, मन्द मनुष्य हूँ किस तरह स्तुति करने में समर्थ हो सकता हूँ। अत्यन्त दुःखी, दीन, अपने भक्त की आप कैसे उपेक्षा (त्याग) करते हो। हे प्रभो! क्या आज संसार में वह आपकी लोकबन्धुता नष्ट हो गई?:
बाल्मीकि ऋषि बोले, 'सुदेव शर्मा ब्राह्मण इस प्रकार विष्णु भगवान् की स्तुति कर हरि के सामने खड़ा हो गया। हरि भगवान् उसके वचन सुनकर मेघ के समान गम्भीर वचन से बोले।'
श्री हरि बोले, 'हे वत्स! तुमने जो तप किया वह बहुत अच्छी तरह से किया। हे महाप्राज्ञ! हे तपोधन! क्या चाहते हो? सो मुझसे कहो। तुम्हारे तप से प्रसन्न मैं उस वर को तुम्हारे लिये दूँगा क्योंकि आज के पहले ऐसा बड़ा भारी कर्म किसी ने भी नहीं किया है।'
सुदेव शर्मा बोले, 'हे नाथ! हे दीनबन्धो! हे दयानिधे! यदि आप प्रसन्न हैं तो हे विष्णो! हे पुराण-पुरुषोत्तम! कृपा कर आप मेरे लिये सत्पुत्र दीजिये। हे हरे! पुत्र के बिना सूना यह गृहस्थाश्रम-धर्म मुझको प्रिय नहीं लगता।' इस प्रकार हरि भगवान् सुदेव शर्मा ब्राह्मण के वचन को सुनकर बोले।
श्रीहरि भगवान् बोले, 'हे द्विज! पुत्र को छोड़ कर बाकी जो न देने के योग्य है उनको भी तुम्हारे लिये दूँगा। क्योंकि ब्रह्मा ने तुम्हारे लिये पुत्र का सुख नहीं लिखा है। मैंने तुम्हारे भालदेश में होने वाले समस्त अक्षरों को देखा उसमें सात जन्म तक तुमको पुत्र का सुख नहीं है।'
इस प्रकार वज्रप्रहार के समान निष्ठुर हरि भगवान् के वचन को सुनकर जड़ के कट जाने से वृक्ष के समान वह सुदेव शर्मा ब्राह्मण पृथिवी तल पर गिर गया। पति को गिरे हुए देखकर गौतमी स्त्री अत्यन्त दुःखित हुई और पुत्र की अभिलाषा से वंचित अपने स्वामी को देखती हुई रुदन करने लगी। कुछ समय बाद धैर्य का आश्रय लेकर गौतमी स्त्री गिरे हुए पति से बोली।
गौतमी बोली, 'हे नाथ! उठिये, उठिये, क्या मेरे वचन का स्मरण नहीं करते हैं? ब्रह्मा ने भालदेश में जो सुख-दुःख लिखा है वह मिलता है। रमानाथ क्या करेंगे? मनुष्य तो अपने किये कर्म का फल भोगता है। अभागे पुरुष का उद्योग, मरणासन्न पुरुष को औषध देने के समान निष्फल हो जाता है। जिसका भाग्य प्रतिकूल (उल्टा) है उसका किया हुआ सब उद्योग व्यर्थ होता है। समस्त वेदों में यज्ञ, दान, तप, सत्य, व्रत, आदि की अपेक्षा हरि भगवान् का सेवन श्रेष्ठ कहा है परन्तु उससे भी भाग्य बल श्रेष्ठ है। इसलिये हे भूसुर! सर्वत्र से विश्वास को हटा कर उठिये और शीघ्र दैव का ही आश्रय लीजिये। इसमें हरि का क्या काम है?'
इस प्रकार उस गौतमी के अत्यन्त शोक से युक्त वचन को सुनकर दुःख से काँपते हुए गरुड़जी विष्णु भगवान् से बोले।
गरुड़जी बोले, 'हे हरे! शोकरूपी समुद्र में डूबी हुई ब्राह्मणी को उसी तरह नेत्र से गिरते हुए अश्रुधारा से व्याकुल ब्राह्मण को देखकर हे दीनबन्धो ! हे दयासिन्धोश! हे भक्तों के लिये अभय को देनेवाले! हे प्रभो! भक्तों के दुःख को नहीं सहने वाले! आपकी आज वह दया कहाँ चली गई?
अहो! आप वेद और ब्राह्मण की रक्षा करने वाले साक्षात् विष्णु हो। इस समय आपका धर्म कहाँ गया? अपने भक्त को देने के लिये चार प्रकार की मुक्ति आपके हाथ में ही स्थित कही गई है। अहो! फिर भी वे आपके भक्त उत्तम भक्ति को छोड़कर चतुर्विध मुक्ति की इच्छा नहीं करते हैं और उनके सामने आठ सिद्धियाँ दासी के समान स्थित रहती हैं। आपके आराधन का माहात्म्य सब जगह सुना है। तब इस ब्राह्मण के पुत्र की वाञ्छा आज पूर्ण करने में आपको क्या परिश्रम है?
हाथी दान करने वाले पुरुष को अंकुश दान करने में क्या परिश्रम है? अब आज से कोई भी आपके चरण-कमल की सेवा नहीं करेगा। जो पुरुष के भाग्य में होता है वही निश्चय रूप से प्राप्त होता है। इस बात की प्रथा आज से संसार में चल पड़ी और आपकी भक्ति रसातल को चली गई अर्थात् लुप्त हो गई।
हे नाथ! आप करने तथा न करने में स्वतंत्र हैं यह आपका सामर्थ्य सर्वत्र विख्यात है आज वह सामर्थ्य इस ब्राह्मण को पुत्र प्रदान न करने से नष्ट होता है। इसलिये आप इस ब्राह्मण के लिये अवश्य एक पुत्र प्रदान कीजिये। सुदामा ब्राह्मण ने आपकी आराधना कर उत्तम वैभव को प्राप्त किया। आपकी कृपा से सान्दीपिनि गुरु ने मृत पुत्र को प्राप्त किया। इन कारणों से पुत्र की लालसा करनेवाले ये दोनों स्त्री-पुरुष आपकी शरण में आये हैं।'
श्रीनारायण बोले, 'इस प्रकार विष्णु भगवान् अमृत के समान गरुड़ के वचन को सुनकर गरुड़जी से बोले, 'हे! पक्षिवर! हे वैनतेय! इस ब्राह्मण को अभिलाषित एक पुत्र शीघ्र दीजिये।'
इस प्रकार अपने अनुकूल हरि भगवान् के वचन को सुनकर गरुड़जी ने अत्यन्त प्रसन्नचित्त होकर उस पृथिवी के देवता दुःखित ब्राह्मण के लिये अनुरूप सुन्दर पुत्र को जल्दी से दे दिया।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्ये पञ्चदशोऽध्यारयः ॥१५॥
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पुरुषोत्तम मास माहात्म्य कथा: अध्याय 16 (Purushottam Mas Mahatmya Katha: Adhyaya 16)
श्रीनारायण बोले, 'हे महाप्राज्ञ! हे नारद! बाल्मीकि ऋषि ने जो परम अद्भुत चरित्र दृढ़धन्वा राजा से कहा उस चरित्र को मैं कहता हूँ तुम सुनो।
बाल्मीकि ऋषि बोले, 'हे दृढ़धन्वन! हे महाराज! हमारे वचन को सुनिये। गरुड़ जी ने केशव भगवान् की आज्ञा से इस प्रकार ब्राह्मण श्रेष्ठ से कहा।
गरुड़जी बोले, 'हे द्विजश्रेष्ठ! तुमको सात जन्म तक पुत्र का सुख नहीं है यह जो वचन हरि भगवान् ने कहा सो इस समय तुमको वैसा ही है, फिर भी कृपा से स्वा्मी की आज्ञा पाकर मैं तुमको पुत्र दूँगा। हे तपोधन! हमारे अंश से तुमको पुत्र होगा। जिस पुत्र से गौतमी के साथ तुम मनोरथ को प्राप्त करोगे; किन्तु उस पुत्र से होनेवाला दुःख तुम दोनों को अवश्य होगा।
हे द्विजशार्दूल! तुम धन्य हो जो तुम्हा्री बुद्धि हरि भगवान् में हुई। हरिभक्ति सकाम हो अथवा निष्कातम हो, हरि भगवान् को दोनों ही प्रिय हैं। मनुष्यों का शरीर जल के बुदबुद के समान क्षण में नाश होनेवाला है उस शरीर को प्राप्त कर जो हृदय में हरि के चरणों का चिन्तन करता है वह धन्य है। इस अत्यन्त दुस्तर संसार से तारनेवाले हरि भगवान् के अलावा दूसरा और कोई नहीं है, यह हरि भगवान् की ही कृपा से मैंने तुमको पुत्र दिया है। मन में श्रीहरि को धारणकर सुखपूर्वक विचारों और उदासीन भाव से संसार के सुखों को भोगो।
बाल्मीकि ऋषि बोले, 'गौतमी और सुदेव दोनों स्त्री पुरुष के देखते-देखते उत्तम वर को देकर उसी समय गरुड़ पर सवार होकर भगवान् हरि शीघ्र ही वैकुण्ठो को चले गये। सुदेव शर्मा भी स्त्री के साथ अपने मन के अनुसार पुत्ररूप वर को पाकर अपने घर को आया और उत्तम गृहस्थाश्रम के सुख को भोगने लगा।
कुछ समय बीतने के बाद गौतमी को गर्भ रहा और दशम महीना प्राप्त होने पर गर्भ पूर्ण हुआ। प्रसूतिकाल आने पर गौतमी ने उत्तम पुत्र पैदा किया और पुत्र के होने पर सुदेव शर्मा बहुत प्रसन्न हुआ। श्रेष्ठ ब्राह्मणों को बुलाकर जातकर्म संस्कार किया और अच्छी तरह स्नान कर ब्राह्मणश्रेष्ठ सुदेव शर्मा ने उन ब्राह्मणों को बहुत दान दिया। ब्राह्मण और स्वजनों के साथ बुद्धिमान् सुदेव शर्मा ने नामकरण संस्कार किया। कृपालु गरुड़जी ने प्रेम से यह पुत्र हुआ था।
शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उदय को प्राप्त, तेजस्वी, यह शुक के सदृश है इसलिए मेरा यह प्रिय पुत्र शुकदेव नामवाला हो। माता के मन को आनन्द देनेवाला वह पुत्र पिता के मनोरथों के साथ-साथ शुक्लपक्ष के चन्द्रमा के समान बढ़ने लगा।
पिता ने हर्ष के साथ उपनयन संस्कार कर गायत्री मन्त्र का उपदेश किया। बाद वह बालक वेदारम्भ संस्कार को प्राप्त कर ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित हुआ। उस ब्रह्मचर्य के तेज से युक्त बालक साक्षात् दूसरे सूर्य के समान शोभित हुआ। बुद्धिसागर उस बालक ने वेद का अध्ययन प्रारम्भ किया। उस गुरुवत्सल बालक ने सद्बुद्धि से अपने गुरु को प्रसन्न किया और गुरु के एक बार कहने मात्र से समस्त विद्या को प्राप्त किया।
बाल्मीकि ऋषि बोले, 'एक समय कोटि सूर्य के समान प्रभाव वाले देवल ऋषि आये। उनको देखकर हर्ष से सुदेव शर्मा ने दण्डवत् प्रणाम किया। अर्ध्य, पाद्य आदि से विधिपूर्वक उन देवल मुनि की पूजा की और महात्मा देवल के लिए आसन दिया। अति तेजस्वी देवदर्शन देवल ऋषि उस आसन पर बैठ गये। बाद अपने चरणों पर बालक को गिरे हुए देखकर देवल ऋषि बोले।
देवल मुनि बोले, 'अहो हे सुदेव! तुम धन्य हो, तुम्हारे ऊपर भगवान् प्रसन्न हुए, क्योंकि तुमने दुर्लभ, सुन्दर, श्रेष्ठ पुत्र को प्राप्त किया है। ऐसा विनीत, बुद्धिमान्, बोलने में चतुर वेदपाठी और शीलवान् पुत्र कहीं भी किसी के यहाँ नहीं देखा।
हे पुत्र! यहाँ आओ, तुम्हारे हाथ में यह कौतुक क्या देखता हूँ? सुन्दर छत्र, दो चामर, यवरेखा के साथ कमल, जानु तक लटकने वाले हाथी के सूँड़ के समान ये तुम्हारे हाथ, कान तक फैले हुए विशाल लाल नेत्र, शरीर गोल आकार का, त्रिवली से युक्त पेट है। इस प्रकार उस बालक के विषय में कहकर उस ब्राह्मन को उत्कण्ठित देख कर देवल ऋषि फिर बोले, अहो! हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का गुणों का समुद्र है। कंधा और कोख का सन्धि स्थान गूढ़ है, शंख के समान उतार-चढ़ाव युक्त गला वाला, चिक्कण टेढ़े शिर के बाल वाला, ऊँची छाती, लम्बी गर्दन, बराबर कान, बैल के समान कन्धा, इस तरह समस्त लक्षणों से युक्त यह पुत्र श्रेष्ठ भाग्य का निधि है।
एक ही बहुत बड़ा दोष है जिससे सब व्यर्थ हो गया। इस प्रकार कह कर शिर काँपते हुए दीर्घ श्वास लेकर देवल मुनि बोले, 'प्रथम आयु की परीक्षा करना, बाद लक्षणों को कहना चाहिये। आयु से हीन बालक के लक्षणों से क्या प्रयोजन है? हे सुदेव! यह तुम्हारा लड़का बारहवें वर्ष में डूब कर मर जायगा, इससे तुम मन में शोक नहीं करना। अवश्य होने वाला निःसन्देह होकर ही रहता है, मरणासन्न को औषध देने के समान उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं है।
बाल्मीकि मुनि बोले, 'देवल मुनि इस प्रकार कहकर ब्रह्मलोक को चले गये और गौतमी के साथ सुदेव ब्राह्मण पृथिवी पर गिर गया।
पृथिवी पर पड़ा हुआ देवल ऋषि के कहे हुए वचनों को स्मरण कर चिरकाल तक विलाप करने लगा। बाद उसकी स्त्री गौतमी धैर्य धारण करती हुई पुत्र का अपनी गोद में लेकर, प्रथम प्रेम से पुत्र का मुख चुम्बन कर बाद पति से बोली।
गौतमी बोली, 'हे द्विजराज! होने वाली वस्तु में भय नहीं करना चाहिये। जो नहीं होनेवाला है वह कभी नहीं होगा और जो होने वाला है वह होकर रहेगा। क्या राजा नल, रामचन्द्र और युधिष्ठिर दुःख को प्राप्त नहीं हुये?
राजा बलि भी बन्धन को प्राप्त हुआ, यादव नाश को प्राप्त हुए, हिरण्याक्ष कठिन वध को प्राप्त हुआ, वृत्रासुर भी मृत्यु को प्राप्त हुआ। सहस्रार्जुन का शिर काटा गया, रावण के भी उसी तरह शिर काटे गये, हे मुने! भगवान् रामचन्द्र भी वन में जानकी के विरह को प्राप्त हुए। राजर्षि परीक्षित भी ब्राह्मण से मृत्यु को प्राप्त हुये। हे मुनीश्वेर! इस प्रकार जो होने वाला है वह अवश्य होता है। इसलिये हे नाथ! उठिये और सनातन हरि भगवान् का भजन करिये जो समस्त जीवों के रक्षक हैं और मोक्ष पद को देने वाले हैं।
बाल्मीकि ऋषि बोले, 'इस प्रकार सुदेव शर्मा ने अपनी स्त्री गौतमी के वचन को सुन कर स्वस्थ हो हृदय में हरि भगवान् के चरणों का ध्यान कर पुत्र से होने वाले शोक को जल्दी से त्याग दिया।
इति श्रीबृहन्नारदीयपुराणे पुरुषोत्तममासमाहात्म्ये षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
॥ हरिः शरणम् ॥
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